अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 70/ मन्त्र 17
एन्द्र॑ सान॒सिं र॒यिं स॒जित्वा॑नं सदा॒सह॑म्। वर्षि॑ष्ठमू॒तये॑ भर ॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒न्द्र॒ । सा॒न॒सिम् । र॒यिम् । स॒ऽजित्वा॑नम् ॥ स॒दा॒सऽह॑म् ॥ वर्षि॑ष्ठम् । ऊ॒तये॑ । भ॒र॒ ॥७०.१७॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम्। वर्षिष्ठमूतये भर ॥
स्वर रहित पद पाठआ । इन्द्र । सानसिम् । रयिम् । सऽजित्वानम् ॥ सदासऽहम् ॥ वर्षिष्ठम् । ऊतये । भर ॥७०.१७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
१०-२० परमेश्वर की उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र ! [परम ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर] (सानसिम्) सेवनीय, (सजित्वानम्) जीतनेवालों के साथ वर्तमान, (सदासहम्) सदा वैरियों के हरानेवाले, (वर्षिष्ठम्) अत्यन्त बढ़े हुए (रयिम्) उस धन को (ऊतये) हमारी रक्षा के लिये (आ) सब ओर से (भर) भर ॥१७॥
भावार्थ
सब मनुष्य परमेश्वर का आश्रय लेकर पुरुषार्थ के साथ विद्याओं द्वारा धन बढ़ावें और शरीर और बुद्धिबल तथा अश्व आदि सेना को दृढ़ करके शत्रुओं को जीतें ॥१७, १८॥
टिप्पणी
मन्त्र १७-२० ऋग्वेद में है-१।८।१-४; मन्त्र १७ साम०-पू० २।४। ॥ १७−(आ) समन्तात् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (सानसिम्) अ० २०।१४।२। षण संभक्तौ-असिप्रत्ययः। सेवनीयम् (रयिम्) धनम् (सजित्वानम्) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७। जि जये-क्वनिप्, सहस्य सभावः। जित्वभिर्जेतृभिः सह वर्तमानम् (सदासहम्) सर्वदा शत्रूणामभिभवितारम् (वर्षिष्ठम्) अ० ४।९।८। वृद्ध-इष्ठन्। अतिशयेन वृद्धम् (ऊतये) रक्षायै (भर) धर ॥
विषय
उत्कृष्ट धन
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (रयिं आभर) = हमें ऐश्वर्य प्राप्त कराइए। उस रथि को जोकि (सानसिम्) = संभजनीय है-समविभागपूर्वक सेवनीय है। हम इस धन को अकेले न खाएँ। 'केवलाघो भवति केवलादी' इस बात का स्मरण रखें कि अकेला खाना तो पाप को ही खाना है। यह धन (सजित्वानम्) = विजयशील हो। हमारी सब आवश्यकताओं को पूर्ण करता हुआ हमें वासनाओं में फंसानेवाला न हो। (सदासहम्) = सदा वासनाओं का पराभव करनेवाला हो। यह धन वासनापूर्ति का साधन न बन जाए। ३. (वर्षिष्ठम्) = यह धन सदा बढ़ा हुआ हो-हमारे जीवनों में सुखों की वर्षा करनेवाला हो। इस धन को (ऊतये) = हमारे रक्षण के लिए प्राप्त कराइए । जीवन यात्रा की पूर्ति के लिए साधन बनता हुआ यह धन हमारा रक्षक हो।
भावार्थ
प्रभु हमें वह धन प्राप्त कराएँ जिसे हम बाँटकर खाएँ, जो हमें विजयी बनाए, वासनाओं का पराभव करे, सब आवश्यक साधनों को प्रास कराने के लिए पर्याप्त हो। यह धन हमारा रक्षक हो।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर! (ऊतये) हमारी रक्षा के लिए हमें (रयिम्) निजकृपा तथा निज प्रसन्नतारूपी सम्पत्ति (आ भर) प्रदान कीजिए, जो कि (सानसिम्) हमें ज्ञान-विज्ञान प्रदान करे, (सजित्वानम्) कामादि पर विजय प्राप्त कराये, (सदासहम्) सदा काम, अविद्या तथा राग-द्वेष आदि का पराभव करे, (वर्षिष्ठम्) और आनन्दरस की प्रभूत वर्षा करे। [सानसिम्=षणु दाने।]
इंग्लिश (4)
Subject
India Devata
Meaning
Indra, lord supreme of power and glory, bless us with the wealth of life and well-being that gives us the superiority of action over sufferance, delight and victory, courage and endurance, excellence and generosity, and leads us on way to progress under divine protection.
Translation
O Almighty God, please bring us the wealth which gives delight, which is the source of victory, ever-conquering and excellent for our safety.
Translation
O Almighty God, please bring us the wealth which gives delight, which is the source of victory, ever-conquering and excellent for our safety.
Translation
O Great God or king, for our protection and safety amass the huge wealth and fortunes, capable of giving us all comforts and joys, enabling us to conquer and subdue our rival forces of evil and darkness.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
मन्त्र १७-२० ऋग्वेद में है-१।८।१-४; मन्त्र १७ साम०-पू० २।४। ॥ १७−(आ) समन्तात् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् जगदीश्वर (सानसिम्) अ० २०।१४।२। षण संभक्तौ-असिप्रत्ययः। सेवनीयम् (रयिम्) धनम् (सजित्वानम्) अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते। पा० ३।२।७। जि जये-क्वनिप्, सहस्य सभावः। जित्वभिर्जेतृभिः सह वर्तमानम् (सदासहम्) सर्वदा शत्रूणामभिभवितारम् (वर्षिष्ठम्) अ० ४।९।८। वृद्ध-इष्ठन्। अतिशयेन वृद्धम् (ऊतये) रक्षायै (भर) धर ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
১০-২০ পরমেশ্বরোপাসনোপদেশঃ
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে ইন্দ্র ! [পরম ঐশ্বর্যবান জগদীশ্বর] (সানসিম্) সেবনীয়, (সজিত্বানম্) বিজয়ীদের সহিত বর্তমান, (সদাসহম্) সদা শত্রুনাশক, (বর্ষিষ্ঠম্) অত্যন্ত বৃদ্ধিপ্রাপ্ত (রয়িম্) ধনকে (ঊতয়ে) আমাদের রক্ষার জন্য (আ) সর্বতোভাবে (ভর) পূরণ করুন॥১৭॥
भावार्थ
সকল মনুষ্য পরমেশ্বরের আশ্রয় গ্রহণ করে পুরুষার্থের সহিত বিদ্যা দ্বারা ধন বৃদ্ধি করুক এবং শরীর ও বুদ্ধিবল তথা অশ্বাদি সেনাকে দৃঢ় করে শত্রুদের জয় করুক ॥১৭, ১৮॥মন্ত্র ১৭-২০ ঋগ্বেদে আছে-১।৮।১-৪; মন্ত্র ১৭ সাম০-পূ০ ২।৪।৫॥
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! (ঊতয়ে) আমাদের রক্ষার জন্য আমাদের (রয়িম্) নিজকৃপা তথা নিজ প্রসন্নতারূপী সম্পত্তি (আ ভর) প্রদান করুন, যা (সানসিম্) আমাদের জ্ঞান-বিজ্ঞান প্রদান করে, (সজিত্বানম্) কামাদির ওপর বিজয় প্রাপ্ত করায়/করাবে, (সদাসহম্) সদা কাম, অবিদ্যা তথা রাগ-দ্বেষাদির পরাজয় করায়/করাবে, (বর্ষিষ্ঠম্) এবং আনন্দরসের প্রভূত বর্ষা করায়/করাবে। [সানসিম্=ষণু দানে।]
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal