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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 22 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् सूक्तम् - वर्चः प्राप्ति सुक्त
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    मि॒त्रश्च॒ वरु॑ण॒श्चेन्द्रो॑ रु॒द्रश्च॑ चेततुः। दे॒वासो॑ वि॒श्वधा॑यस॒स्ते मा॑ञ्जन्तु॒ वर्च॑सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्र: । च॒ । वरु॑ण: । च॒ । इन्द्र॑: । रु॒द्र: । च॒ । चे॒त॒तु॒ । दे॒वास॑: । वि॒श्वऽधा॑यस: । ते । मा॒ । अ॒ञ्ज॒न्तु॒। वर्च॑सा ॥२२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रश्च वरुणश्चेन्द्रो रुद्रश्च चेततुः। देवासो विश्वधायसस्ते माञ्जन्तु वर्चसा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मित्र: । च । वरुण: । च । इन्द्र: । रुद्र: । च । चेततु । देवास: । विश्वऽधायस: । ते । मा । अञ्जन्तु। वर्चसा ॥२२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कीर्ति पाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (मित्रः) सबका मित्र, (च) और (वरुणः) अति श्रेष्ठ (च) और (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् (च) और (रुद्रः) ज्ञानदाता वा दुःखनाशक परमेश्वर (चेततु) चेताता रहे, और (ते) वे [प्रसिद्ध] (विश्वधायसः) सब जगत् के पोषण करनेवाले (देवासः=देवाः) दिव्य पदार्थ [पृथिवी, जल, वायु, तेज, आकाश आदि] (मा) मुझको (वर्चसा) तेज वा बल से (अञ्जन्तु) कान्तिवाला करें ॥२॥

    भावार्थ

    सब स्त्री पुरुष परमेश्वर की महिमा को जानें और विज्ञानपूर्वक सब पदार्थों से उपकार लेकर तेजस्वी और यशस्वी होवें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(मित्रः) सर्वप्रेरकः। सर्वहितकारी। (वरुणः) वरणीयः। श्रेष्ठः। (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्। (रुद्रः) अ० २।२७।६। रुत्-र। ज्ञानदाता। दुःखनाशकः परमेश्वरः। (चेततु) चिती ज्ञाने। चेतयतु। (देवासः) असुगागमः। पृथिव्यादिदेवाः। (विश्वधायसः) वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। इति विश्व+दधातेरसुन्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। सर्वस्य जगतो धातारः पोषयितारः। (ते) प्रसिद्धाः। (अञ्जन्तु) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु। प्रकाशयन्तु। संयोजयन्तु (वर्चसा) तेजसा। बलेन ॥

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    विषय

    मित्र, वरुण, इन्द्र व रुद्रः

    पदार्थ

    १.(मित्र:) = स्नेह की भावना (च) = और (वरुण:) = निषता का भाव (च) = तथा (इन्द्र:) = जितेन्द्रियता की दिव्य भावना (च) = और (रुद्रः) = [रुत्-द्र] रोगों को दूर भगाने का संकल्प-ये सब (चेततु:) = हमें अनुग्राह्यरूप में जानें-इनके अनुग्रह से हमारा शरीर सबल बना रहे। २.(देवास:) = सूर्य-चन्द्र आदि सब देव (विश्वधायस:) = सबका धारण करनेवाले हैं, (ते) = वे (मा) = मुझे (वर्चसा) = तेज से (अजन्तु) = [अक्त] आश्लिष्ट करें। इन देवों के सम्पर्क में जीवन को बिताता हुआ मैं तेजस्वी बनें।

    भावार्थ

    'स्नेह, निर्देषता, जितेन्द्रियता व नीरोगता' की भावनाएँ मुझे सबल बनाएँ। सूर्यादि देवों के सम्पर्क में मेरा जीवन तेजस्वी बने।

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    भाषार्थ

    (मित्र: च) मित्रों को बढ़ानेवाला मन्त्री, (वरुण: च) और निज प्रत्येक राष्ट्र का अधिपति, (इन्द्रः) सम्राट, (रुद्रः च) और रौद्रकर्मा युद्ध मंत्री, (चेततु) इनमें से प्रत्येक [ राष्ट्र में] सचेत रहे, सावधान रहे। (विश्वधायसः देवासः) सब प्रजाजनों का धारण-पोषण करनेवाले अन्य अधिकारी वर्ग (ते) वे (मा) मुझ साम्राज्य के स्वामी को, (वर्चसा) वर्चस् द्वारा (अञ्जन्तु) कान्तियुक्त करें। "च" पद समुच्चयार्थक हैं।

    टिप्पणी

    [मित्र:=मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व (अथर्व० २।६।४), अर्थात् हे अग्नि अर्थात् अग्रणी प्रधानमन्त्री! तू मित्र अर्थात् स्नेही "मित्र" नामक मन्त्री द्वारा मित्रधा होकर, मित्र राजाओं को धारण करने में यत्न किया कर। अग्नि:=अग्रणीर्भवति (निरुक्त ७।४।१४)। वरुणः="इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु:० ८।३७)। विश्वधायस विश्व+धा (युक्)+असुन्, प्रथमा विभक्ति बहुवचन। अञ्जन्तु=अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु (रुधादिः)।]

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    विषय

    तेजस्वी होने की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    (मित्रः) मित्र, न्यायाधीश, (वरुणः) वरुण, पोलिस विभाग और गुप्तचर विभाग का अध्यक्ष और (इन्द्रः) = सेनापति और (रुद्रः) दुष्टों का रुलाने वाला दण्ड-विभाग का अध्यक्ष इनमें से प्रत्येक (चेततु) सदा सावधान रहें। (विश्व-धायसः देवासः) समस्त राष्ट्र के पालक पोषक अधिकारीगण विद्वान् होकर (मा वर्चसा अञ्जन्तु) मुझको अपने बल और तेज से सम्पन्न करें। सभी सावधान होकर जब कार्य करते हैं तब उनका बल भी राजा का बल कहाता है और उसकी प्रतिष्ठा का कारण होता है।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘चेततुः’ इति बहुत्र, पैप्प० सं० । (च०) ‘सोमः पूषा च चेततुः’ इति साम०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वशिष्ठ ऋषिः । वर्चो देवता । बृहस्पतिरुत विश्वेदेवाः । १ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिपदा परानुष्टुप् विराड्जगती । ४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती । २, ५, ६ अनुष्टुभः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Lustre of Life

    Meaning

    May Mitra, sun and natural warmth, Varuna, waters of oceans and space and divine judgement, prana, apana and udana energies, Rudra, natural immunity and divine mercy, all the divine powers which sustain the world, bless me with strength, lustre and grace.

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    Translation

    May the friendly Lord, the venerable Lord, the resplendent Lord, and the terrible puhisher recognize me. May those bounties of Nature, that sustain all, infuse me with vigour.

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    Translation

    Let hydrogen, oxygen, electricity, and the fire make us ever conscious of it and all the physical forces feading ap the energy to world make us vigorous with their vigor.

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    Translation

    May the just magistrate, the head of the police and C.I.D. the commander-in-Chief, thehead of Law and Order, always remains alert. May the all-fostering learned persons,anoint and balm me with their strength and glory.

    Footnote

    Me: The king

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(मित्रः) सर्वप्रेरकः। सर्वहितकारी। (वरुणः) वरणीयः। श्रेष्ठः। (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्। (रुद्रः) अ० २।२७।६। रुत्-र। ज्ञानदाता। दुःखनाशकः परमेश्वरः। (चेततु) चिती ज्ञाने। चेतयतु। (देवासः) असुगागमः। पृथिव्यादिदेवाः। (विश्वधायसः) वहिहाधाञ्भ्यश्छन्दसि। उ० ४।२२१। इति विश्व+दधातेरसुन्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति युक्। सर्वस्य जगतो धातारः पोषयितारः। (ते) प्रसिद्धाः। (अञ्जन्तु) अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु। प्रकाशयन्तु। संयोजयन्तु (वर्चसा) तेजसा। बलेन ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (মিত্রঃ চ) মিত্রদের প্রেরণকারী মন্ত্রী, (বরুণঃ চ) এবং নিজ প্রত্যেক রাষ্ট্রের অধিপতি, (ইন্দ্রঃ) সম্রাট, (রুদ্রঃ চ) এবং রৌদ্রকর্মা যুদ্ধমন্ত্রী, (চেততু) এঁদের প্রত্যেকে [রাষ্ট্রে] সচেতন থাকুক, সতর্ক থাকুক। (বিশ্বাধায়সঃ) সমস্ত প্রজাদের ধারণ-পোষণকারী অন্যান্য অধিকারী বর্গ (তে) তাঁরা (মা) সাম্রাজ্যের স্বামী আমাকে (বচর্সা) বর্চস্ দ্বারা (অঞ্জুন্তু) কান্তিযুক্ত করুক। "চ" পদটি সমুচ্চার্থক।

    टिप्पणी

    [মিত্রঃ = মিত্রেণাগ্নে মিত্রধা যতস্ব (অথর্ব ২।৬।৪), অর্থাৎ হে অগ্নি অর্থাৎ অগ্রণী প্রধানমন্ত্রী! তুমি মিত্র অর্থাৎ স্নেহী "মিত্র" নামক মন্ত্রী দ্বারা মিত্রধা হয়ে, মিত্র রাজাদের ধারণ করার ক্ষেত্রে চেষ্টা করো। অগ্নিঃ= অগ্রণীর্ভবতি (নিরুক্ত ৭।৪।১৪)। বরুণঃ= “ইন্দ্রশ্চ সাম্রাড্ বরুণশ্চ রাজা (যজু০ ৮।৩৭)। বিশ্বধায়সঃ= বিশ্ব + ধা (যুক্) + অসুন্, প্রথমা বিভক্তি বহুবচন। অঞ্জন্তু= অঞ্জূ ব্যক্তিম্রক্ষণকান্তিগতিষু (রুধাদিঃ)।]

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    मन्त्र विषय

    কীর্তিপ্রাপ্ত্যুপদেশঃ

    भाषार्थ

    (মিত্রঃ) সকলের মিত্র, (চ) এবং (বরুণঃ) অতি শ্রেষ্ঠ (চ) এবং (ইন্দ্রঃ) পরম ঐশ্বর্যবান্ (চ) এবং (রুদ্রঃ) জ্ঞানদাতা বা দুঃখনাশক পরমেশ্বর (চেততু) চেতনা প্রদান করুক, এবং (তে) তিনি [প্রসিদ্ধ] (বিশ্বধায়সঃ) সমস্ত জগতের পোষণকারী (দেবাসঃ=দেবাঃ) দিব্য পদার্থ [পৃথিবী, জল, বায়ু, অগ্নি, আকাশ আদি] (মা) আমাকে (বর্চসা) তেজ বা বল দ্বারা (অঞ্জন্তু) কান্তিযুক্ত/কান্তিসম্পন্ন করুক ॥২॥

    भावार्थ

    সকল স্ত্রী পুরুষ পরমেশ্বরের মহিমা সম্পর্কে জ্ঞাত হোক এবং বিজ্ঞানপূর্বক সকল পদার্থ থেকে উপকার গ্রহণ করে তেজস্বী এবং যশস্বী হোক॥২॥

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