अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
ऋषिः - वसिष्ठः
देवता - बृहस्पतिः, विश्वेदेवाः, वर्चः
छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा जगती
सूक्तम् - वर्चः प्राप्ति सुक्त
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यत्ते॒ वर्चो॑ जातवेदो बृ॒हद्भव॒त्याहु॑तेः। याव॒त्सूर्य॑स्य॒ वर्च॑ आसु॒रस्य॑ च ह॒स्तिनः॑। ताव॑न्मे अ॒श्विना॒ वर्च॒ आ ध॑त्तां॒ पुष्क॑रस्रजा ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ते॒ । वर्च॑: । जा॒त॒ऽवे॒द॒: । बृ॒हत् । भव॑ति । आऽहु॑ते: । याव॑त् । सूर्य॑स्य । वर्च॑: । आ॒सुरस्य॑ । च॒ । ह॒स्तिन॑: । ताव॑त् । मे॒ । अ॒श्विना॑ । वर्च॑: । आ । ध॒त्ता॒म् । पुष्क॑रऽस्रजा ॥२२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्ते वर्चो जातवेदो बृहद्भवत्याहुतेः। यावत्सूर्यस्य वर्च आसुरस्य च हस्तिनः। तावन्मे अश्विना वर्च आ धत्तां पुष्करस्रजा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ते । वर्च: । जातऽवेद: । बृहत् । भवति । आऽहुते: । यावत् । सूर्यस्य । वर्च: । आसुरस्य । च । हस्तिन: । तावत् । मे । अश्विना । वर्च: । आ । धत्ताम् । पुष्करऽस्रजा ॥२२.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कीर्ति पाने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यत्) जिस कारण से (जातवेदः) उत्पन्न संसार के ज्ञानवाले परमेश्वर ! (ते) तेरे लिये (आहुतेः) आहुति [आत्मदान] से [हमारा] (वर्चः) तेज (बृहत्) बड़ा (भवति) होता है, (यावत्) जितना (वर्चः) तेज वा बल (आसुरस्य) प्राणियों वा मेघों के हितकारक (सूर्यस्य) सूर्य का (च) और (हस्तिनः) हाथी का है, (तावत्) उतना (वर्चः) तेज वा बल (मे) मेरे लिये (पुष्करस्रजा=०-जौ) पोषण देनेवाले (अश्विना=०-नौ) माता पिता वा सूर्य्य चन्द्रमा (आधत्ताम्) सब प्रकार देवें ॥४॥
भावार्थ
सब स्त्री पुरुष माता पिता की सुशिक्षा और सूर्य चन्द्रमा के समान नियम से परमेश्वर की आज्ञापालन में मन लगाकर अपना बल बढ़ावें और सूर्य आदि दूरस्थ और हाथी आदि पृथिवीस्थ पदार्थों का बल, विज्ञान द्वारा जानकर उन्नति करें ॥४॥
टिप्पणी
४−(यत्) यस्मात् कारणात्। (ते) तुभ्यम्। (वर्चः) तेजः। बलम्। (जातवेदः) अ० १।७।२। हे जातस्य उत्पन्नस्य संसारस्य ज्ञातः परमेश्वर। (बृहत्) महत्। (आहुतेः) दानात्। आत्मसमर्पणात्। (यावत्) अ० ३।१५।३। यत्परिमाणम्। (सूर्यस्य) आदित्यस्य। (आसुरस्य) असुर इति व्याख्यातम् अ० १।१०।१। असुः प्राणः-रो मत्वर्थीयः। असुरः प्राणी, ततो अण् प्रत्ययः। प्राणिभ्यो हितस्य। यद्वा, असुरो मेघः-निघ० १।१०। तेभ्यो हितस्य। (हस्तिनः) गजस्य। (तावत्) तत्परिमाणम्। (मे) मह्यम्। (अश्विना) अ० २।२९।६। मातापितरौ। सूर्याचन्द्रमसौ। (आ धत्ताम्) समन्तात् स्थापयताम्। प्रयच्छताम् (पुष्करस्रजौ) पुषः कित्। उ० ४।४। इति पुष पोषणे-करन्। पुष्णातीति पुष्करम्। ऋत्विग्दधृक्स्रग्० पा० ३।२।५९। इति सृज त्यागे=दाने-क्विन्। पोषणदातारौ ॥
विषय
प्राणसाधना से वर्चस्विता की प्राप्ति
पदार्थ
१. हे (जातवेदः) = सब पदार्थों में विद्यमान अग्ने! (यत्) = जो (ते, वर्च:) = तेरा तेज (आहुते:) = आहुति के द्वारा (बृहत् भवति) = बहुत होता है-मृत की आहुति से अग्नि चमक उठती है। (यावत्) = जितना (वर्च:) = तेज इस (असरस्य) = प्राणशक्ति का सञ्चार करनेवाले (सूर्यस्य) = सूर्य का है, (च) = और जितना तेज (हस्तिन:) = हाथी का है, (तावत्) = उतना (वर्च:) = तेज (मे) = मुझमें (अश्विना) = प्राणापान आधत्ताम् स्थापित करें। २.ये प्राणापान (पुष्करस्त्रजा) = शरीर में रेत:कणरूप जलों का निर्माण करनेवाले हैं। इन रेत:कणरूप जलों के निर्माण द्वारा ही ये हमारे शरीर में शक्ति का आधान करते हैं।
भावार्थ
प्राणसाधना से रेत:कणों के रक्षण के द्वारा हम इसप्रकार तेजस्वी बनते हैं जैसेकि 'आहुत अग्नि' तेजस्वी होता है। जैसे सूर्य दीप्त है, उसी प्रकार हम दीप्त वर्चस् बनें, हाथी के समान बलवान् हों।
भाषार्थ
(जातवेदः) उत्पन्न पदार्थों में विद्यमान हे अग्नि! (आहुते:) आहुति से (यत्) जो (ते) तेरा (बृहत् वर्चः) महावर्चस् (भवति) हो जाता है, (यावत्) जितना बड़ा (सूर्यस्य वर्चः) सूर्य का वर्चस् है, (च) और जितना बड़ा (आसुरस्य) प्राणवान् (हस्तिनः) हाथी का वर्चस् है, (पुष्करस्रजा) पद्ममाला धारण करनेवाले (अश्विना) हे दो अश्वियो! (तावत्) उतना बड़ा वर्चस् (मे) मुझमें (आ धत्ताम्) तुम स्थापित करो।
टिप्पणी
[जातवेदः= जाते-जाते विद्यते वा (निरुक्त ७।५।१९) आसुरस्य=असुर एव आसुरः, स्वार्थेऽण् । असुरः= प्राणवान्, यथा असुरत्वम्= प्राणवत्वम् (निरुक्त १०।३।३४)। मे=मह्यम्। अश्विना= रथाश्वों और अश्वारोहियों के अश्व; दो प्रकार के अश्वों के नियन्ता दो सेनापति। पुष्करस्रजा=दोनों सेनापतियों के सत्कारार्थ पद्मपुष्पमालाएँ। मे वर्च: आधत्ताम्= मुझ निर्वाचित राजा में दोनों सेनापति वर्चस् का आधान करें।]
विषय
तेजस्वी होने की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे (जातवेदः) समस्त पदार्थों में व्यापक प्रभो ! जिस प्रकार अग्नि में (आहुतेः) आहुति गिरने से उसका प्रकाश और ताप प्रचण्ड हो जाता है उसी प्रकार कालाग्नि स्वरूप आप में समस्त विश्व की महान् आहुति पड़ने से भी (यत् ते बृहद् वर्चः) आपका जो महान् तेज प्रकट होता है और इसके अंश रूप साक्षात् (सूर्यस्य) सूर्य का (यावत् वर्चः) जो तेज और (आसुरस्य) असु अर्थात् प्राणों में रमण करने वाले (हस्तिनः) सबको आघात करने या व्यापने वाले प्राण का जो तेज है हे (अश्विना) द्यौ और पृथिवी और अध्यात्म में प्राण और अपान और राजा और प्रजा तुम दोनों (पुष्कर-स्रजा) नक्षत्र रूप या लोकरूप पुष्करों की माला पहने या देहरूप पुरियों को माला रूप से धारण करने वाले, या पुष्टि करनेहारे शासक, मुख्य पुरुषों के निर्माता या अपने में उनको माला रूप से धारने वाले होकर (तावत् वर्चः) उतना बल (मे आधत्ताम्) मेरे में धारण करावें ।
टिप्पणी
(द्वि०)—‘आहुते’ इतिसायणः। ‘आहुतम्’ इति पैप्प० सं० (च०) ‘कृणतां पुष्क०’ (तृ०) ‘यावद् वर्चः सूर्यस्य’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वशिष्ठ ऋषिः । वर्चो देवता । बृहस्पतिरुत विश्वेदेवाः । १ विराट् त्रिष्टुप् । ३ त्रिपदा परानुष्टुप् विराड्जगती । ४ त्र्यवसाना षट्पदा जगती । २, ५, ६ अनुष्टुभः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Lustre of Life
Meaning
O Jataveda, omniscient Agni, self-refulgent spirit of existence, as long as the flame of fire rises by yajna, as long as the lustre of the sun, vibrancy of pranic energies and strength of the elephant lasts and rises, that long and that far and high, O Ashvins, complementary harbingers of nature’s divine energy and grace, and the beauty and fragrance of the lotus flower, pray vest me with the lustre and glory of life like the flames of yajna fire fed on and raised by oblations of ghrta.
Translation
O fire, your vigour, that becomes tremendous with the offerings (at the sacrifice), the vigour, that the Sun and the mighty elephant possess, with that vigour may the twin divine healers, adorned with lotus garlands (puskara-srajā), infuse me.
Translation
Let inhaling and exhaling breath-working out in the space of heart give us that vigor which is attained by fire through its oblation and what is the vigor of sin and what is the vigor of the elephant created by clouds-(Abhramatanga).
Translation
O Omnipresent God, just as an oblation poured into the fire heightens its luster so does the sacrifice (Yajna) of the universe enhance Thy lofty strength. What strength the sun or the cloud possesses—such strength may father and mother, my nourishers, vouchsafe to me.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(यत्) यस्मात् कारणात्। (ते) तुभ्यम्। (वर्चः) तेजः। बलम्। (जातवेदः) अ० १।७।२। हे जातस्य उत्पन्नस्य संसारस्य ज्ञातः परमेश्वर। (बृहत्) महत्। (आहुतेः) दानात्। आत्मसमर्पणात्। (यावत्) अ० ३।१५।३। यत्परिमाणम्। (सूर्यस्य) आदित्यस्य। (आसुरस्य) असुर इति व्याख्यातम् अ० १।१०।१। असुः प्राणः-रो मत्वर्थीयः। असुरः प्राणी, ततो अण् प्रत्ययः। प्राणिभ्यो हितस्य। यद्वा, असुरो मेघः-निघ० १।१०। तेभ्यो हितस्य। (हस्तिनः) गजस्य। (तावत्) तत्परिमाणम्। (मे) मह्यम्। (अश्विना) अ० २।२९।६। मातापितरौ। सूर्याचन्द्रमसौ। (आ धत्ताम्) समन्तात् स्थापयताम्। प्रयच्छताम् (पुष्करस्रजौ) पुषः कित्। उ० ४।४। इति पुष पोषणे-करन्। पुष्णातीति पुष्करम्। ऋत्विग्दधृक्स्रग्० पा० ३।२।५९। इति सृज त्यागे=दाने-क्विन्। पोषणदातारौ ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(জাতবেদঃ) উৎপন্ন পদার্থ-সমূহের মধ্যে বিদ্যমান হে অগ্নি! (আহুতেঃ) আহুতি দ্বারা (যত্) যে (তে) তোমার (বৃহত্ বর্চঃ) মহাবর্চস্ (ভবতি) হয়, (যাবৎ) যত মহৎ/বৃহৎ (সূর্য্যস্য বর্চঃ) সূর্যের বর্চস্, (চ) এবং যত মহৎ/বৃহৎ (আসুরস্য) প্রাণবান্ (হস্তিনঃ) হাতির বর্চস্ রয়েছে, (পুষ্করস্রজা) পদ্মমালা ধারণকারী (আশ্বিনা) হে উভয় অশ্বি! (তাবৎ) তত মহৎ/বৃহৎ বর্চস্ (মে) আমার মধ্যে (আ ধত্তাম) তোমরা স্থাপিত করো।
टिप्पणी
[জাতবেদঃ= জাতে-জাতে বিদ্যতে বা (নিরুক্ত ৭।৫।১৯) আসুরস্য=অসুর এব আসুরঃ, স্বার্থেঽণ্। অসুরঃ= প্রাণবান্, যথা অসুরত্বম্=প্রাণবত্বম্ (নিরুক্ত ১০।৩।৩৪)। মে = মহ্যম্। আশ্বিনা = রথাশ্ব এবং অশ্বারোহীদের অশ্ব; উভয় প্রকারের অশ্বের নিয়ন্তা দুই সেনাপতি। পুষ্করস্রজা = দুই সেনাপতির সৎকারার্থে পদ্মপুষ্পমালা। মে বর্চঃ আধত্তাম্= আমার [নির্বাচিত রাজার] মধ্যে দুজন সেনাপতি বর্চস্ আধান/স্থাপন করুক।]
मन्त्र विषय
কীর্তিপ্রাপ্ত্যুপদেশঃ
भाषार्थ
(যৎ) যে কারণে (জাতবেদঃ) উৎপন্ন সংসারের জ্ঞানবান পরমেশ্বর ! (তে) তোমার জন্য (আহুতেঃ) আহুতি [আত্মদান] এর মাধ্যমে [আমাদের] (বর্চঃ) তেজ (বৃহৎ) মহৎ/বৃদ্ধি (ভবতি) হয়, (যাবৎ) যে পরিমাণ (বর্চঃ) তেজ বা বল (আসুরস্য) প্রাণীদের বা মেঘের হিতকারক (সূর্যস্য) সূর্যের (চ) এবং (হস্তিনঃ) হাতির আছে, (তাবৎ) সেই পরিমাণ (বর্চঃ) তেজ বা বল (মে) আমার জন্য (পুষ্করস্রজা=০-জৌ) পোষণদাতা/পোষণকারী (অশ্বিনা=০-নৌ) মাতা পিতা বা সূর্য চন্দ্র (আধত্তাম্) সমস্ত রকমভাবে প্রদান করুক ॥৪॥
भावार्थ
সকল স্ত্রী, পুরুষ মাতা পিতার সুশিক্ষা ও সূর্য চন্দ্রের সমান নিয়মপূর্বক পরমেশ্বরের আজ্ঞা পালনে মনযোগপূর্বক নিজের বল বৃদ্ধি করুক এবং সূর্য আদি দূরস্থ ও হাতি আদি পৃথিবীস্থ পদার্থের বল, বিজ্ঞান দ্বারা জেনে উন্নতি করুক ॥৪॥
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