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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वेनः देवता - बृहस्पतिः, आदित्यः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
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    इ॒यं पित्र्या॒ राष्ट्र्ये॒त्वग्रे॑ प्रथ॒माय॑ ज॒नुषे॑ भुवने॒ष्ठाः। तस्मा॑ ए॒तं सु॒रुचं॑ ह्वा॒रम॑ह्यं घ॒र्मं श्री॑णन्तु प्रथ॒माय॑ धा॒स्यवे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒यम् । पित्र्या॑ । राष्ट्री॑ । ए॒तु॒ । अग्रे॑ । प्र॒थ॒माय॑ । ज॒नुषे॑ । भु॒व॒ने॒ऽस्था: । तस्मै॑ । ए॒तम् । सु॒ऽरुच॑म् । ह्वा॒रम् । अ॒ह्य॒म् । घ॒र्मम् । श्री॒ण॒न्तु॒ । प्र॒थ॒माय॑ । धा॒स्यवे॑ ॥१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इयं पित्र्या राष्ट्र्येत्वग्रे प्रथमाय जनुषे भुवनेष्ठाः। तस्मा एतं सुरुचं ह्वारमह्यं घर्मं श्रीणन्तु प्रथमाय धास्यवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इयम् । पित्र्या । राष्ट्री । एतु । अग्रे । प्रथमाय । जनुषे । भुवनेऽस्था: । तस्मै । एतम् । सुऽरुचम् । ह्वारम् । अह्यम् । घर्मम् । श्रीणन्तु । प्रथमाय । धास्यवे ॥१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टि विद्या से ब्रह्म का विचार।

    पदार्थ

    (पित्र्या) पिता [जगत् पिता परमेश्वर] से आई हुई, (भुवनेष्ठाः) सब जगत् में ठहरी हुई (इयम्) यह (राष्ट्री) राजराजेश्वरी शक्ति [वेद वाणी] (प्रथमाय) सबसे उत्तम (जनुषे) जन्म के लिये (अग्रे) हमारे आगे (एतु) आवे, [अर्थात्] “(तस्मै) उस (प्रथमाय) सबसे ऊपर विराजमान (धास्यवे) संसार का धारण पोषण चाहनेवाले परमात्मा के लिए (एतम्) इस (सुरुचम्) बड़े रुचिर (ह्वारम्) अनिष्ट को झुका देनेवाले (अह्यम्) प्राप्ति के योग्य, वा प्रति दिन वर्तमान (घर्मम्) यज्ञ को (श्रीणन्तु) सब लोग परिपक्व करें” ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे पैतृक धन सब सन्तानों को यथावत् मिलता है, वैसे ही जगत् पिता परमेश्वर की सर्वव्यापिनी सर्वनियन्त्री यह वेदवाणीरूप शक्ति सबके हृदय में वसे कि सब मनुष्य अपना यज्ञ अर्थात् पुरुषार्थ परमात्मा को समर्पण करें, जिससे मनुष्य जन्म सफल होवे ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(इयम्) परिदृश्यमाना (पित्र्या) पितुर्यच्च। पा० ४।३।७९। इति पितृ-यत्, टाप्। पितृसकाशाद् आगता। पैतृका। (राष्ट्री) राजतिः, ऐश्वर्यकर्मा-निरु–० २।२१। सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति राजृ दीप्तौ, ऐश्वर्ये-ष्ट्रन्। व्रश्चभ्रस्ज०। पा० ८।३।३६। इति षत्वम्। षित्त्वात् ङीप्। पा० ४।१।४१। राष्ट्री, ईश्वरनामसु, निघ० २।२२। राज्ञी। ईश्वरौ। सर्वजगद्व्यवहारस्य नियन्त्री शक्तिः (एतु) गच्छतु। प्राप्नोतु। (अग्रे) अभिमुखम् (प्रथमाय) म० १। प्रख्याताय। प्रधानाय, (जनुषे) जनेरुसिः। उ० २।११५। इति जनी प्रादुर्भावे-उसि। जन्मने। जीवनाय (भुवनेष्ठाः) अ० २।१।४। सर्वलोके स्थिता व्याप्ता (तस्मै) वेनाय (एतम्) समीपस्थम् (सुरुचम्) म० १। सुष्ठु रोचमानम् (ह्वारम्) ह्वृ कौटिल्ये ण्यन्तात् पचाद्यच्। अनिष्टस्य कुटिलीकारकम्। (अह्यम्) अहि गतौ-ण्यत्। संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः-इति परिभाषया वृद्धेरभावः। गन्तव्यं प्राप्यम्। यद्वा। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति अहन्-यत्। नस्तद्धिते। पा० ६।४।१४४। इति टिलोपः। अहनि भवम् (घर्मम्) घर्मग्रीष्मौ। उ० १।१४९। इति घृ सेचनदीप्त्योः-मक्। आतपम्। ग्रीष्मम्। स्वेदम्। यज्ञम्, निघ–० ३।१७ (श्रीणन्तु) श्रीञ् पाके। पचन्तु। पक्वं कुर्वन्तु। संस्कुर्वन्तु (धास्यवे) अ० २।१।४। जगतो धारणपोषणेच्छवे ॥

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    विषय

    वेदवाणी व यज्ञ

    पदार्थ

    १. (इयम्) = यह (पित्र्या) = परमपिता प्रभु से होनवाली राष्ट्री-हमारे जीवनों को दीप्त करनेवाली [राज दीसौ] (भुवनेष्ठा:) = सब लोकों में स्थित होनेवाली वेदवाणी (प्रथमाय जनुषे) = सर्वोत्कृष्ट जीवन के लिए अथवा [प्रथ विस्तारे] विस्तृत शक्तियोंवाले जीवन के लिए (अग्रे एतु) = हमें सर्वप्रथम प्राप्त हो। वेदवाणी सृष्टि के आरम्भ में प्रभु द्वारा दी जाती है। यह सब लोकों में समानरूप से प्रादुर्भूत होती है। यह हमारे जीवन को प्रकाशमय बनाती है। हमारे जीवन में इसका प्रमुख स्थान है। हम सबसे पहले इसी का स्वाध्याय करें। २. (तस्मै प्रथमाय धास्यवे) = उस सर्वमुख्य धारण करनेवाले के लिए (एतम्) = इस (धर्मम्) = यज्ञ को (श्रीणन्तु) = परिपक्व करें-संस्कृत करें। यज्ञ के द्वारा ही उस यज्ञरूप प्रभु का यजन [उपासन] होता है। यह यज्ञ (सुरुचम्) = हमारे जीवन को सम्यक् दीप्त करनेवाला है, (ह्वारम्) = क्रोध का निवारक [दया०] अथवा धूएँ के रूप में कुटिल गतिवाला है तथा (अह्याम्) = प्रतिदिन होनेवाला है [अहनि भवम्]। यज्ञ प्रतिदिन करना होता है-इसमें अनध्याय का प्रश्न ही नहीं। यह अत्यन्त बुढ़ापे या मृत्यु पर ही छटेगा। यह हमारे जीवन को दीप्त करता है तथा क्रोधादि आसुरभावों का निवारक है।

    भावार्थ

    हम जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिए वेदवाणी का स्वाध्याय करें। वेद प्रतिपादित यज्ञों को करते हुए प्रभु को प्राप्त करें।

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    भाषार्थ

    (पित्र्या) पितृरूप ब्रह्मरूपिणी (इयम्) यह प्रजापतिरूप-माता, (राष्ट्री) जोकि ब्रह्माण्ड-राष्ट्र की स्वामिनी है, (भुवनेष्ठाः) पृथिबी-रूपी भुवन में भी स्थित है, (प्रथमाय जनुषे) विस्तृत उत्पत्ति के लिए (अग्रे एतु) आगे आए, उत्पादनार्थ आगे बढ़े। (धास्यवे) जगद्धारण की इच्छावाले (तस्मै प्रथमाय) उस प्राथमिक प्रजापति के लिए (ह्वारम्) अदनयोग्य, (सुरुचम्) उत्तम रुचि के उत्पादक, (अह्यम्) प्रतिदिन के ताजे, (एतम् घर्मम्) इस धारोष्ण दुग्ध को (श्रीणन्तु) ऋत्विक् या गृहस्थी अग्नि-परिपक्व करें।

    टिप्पणी

    [पित्र्या=प्रजापतिरूपिणी माता, पितृरूप ब्रह्म का ही द्वितीय रूप है। जैसे ब्रह्म का बर्णन वेदों में पिता और माता के रूप में होता है, बैसे मन्त्र (२) में प्रजापति का वर्णन भी पिता और माता के रूप में हुआ है। इसलिए इसे "राष्ट्री१" द्वारा स्त्रीलिंग में, और "तस्मै, प्रथमाय, धास्यवे" आदि द्वारा पुलिंग में वर्णित किया है। धास्यवे=धा+असुन्+क्यच्+उ (क्याच्छन्दसि)+चतुर्थ्येकवचन। घर्मम्=घृ क्षरणदीप्त्योः (जुहोत्यादिः), दोहा गया ताजा दूध दीप्तिमान तो होता ही है, बह शुक्लरूप भी होता है। ह्वारम्=ह्वरति अत्तिकर्माा (निघं० २।८)। प्रजापति के लिए अग्नि परिपक्व दुग्ध की आहुतियों का वर्णन मन्त्र में हुआ है। श्रीणन्तु=श्रीञ् पाके, पचन्तु, तपन्तु (सायण)।] [१. "राष्ट्री" (अथर्व ४।३०।२)। अथर्व ४।३०।१-८ में मातृरूप में प्रजापति का वर्णन द्रष्टव्य है।]

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    विषय

    परमेश्वर की उत्पादक और धारक शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (पित्र्या) पिता आदि से ज्ञान रूप में प्राप्त, (राष्ट्री) संसार-राष्ट्र की स्वामिनी परमात्मा-शक्ति (प्रथमाय जनुषे) विस्तृत या प्राथमिक संसारोत्पत्ति के लिये (अग्रे एतु) आरम्भ में प्रकट होती है, (भुवनेष्ठाः) वह समग्र भुवनों में स्थित है। (तस्मै प्रथमाय धास्यवे) धारण-पोषण करने वाले उस अनादि पुरुष के लिये, (सुरुचम्) रुचिकर (ह्वारम्) आह्नान के साधनभूत या गर्म (अह्यं धर्मम्) दैनिक घृतरूप सामग्री को, (श्रीणन्तु) तुम लोग तपा कर शुद्ध कर लिया करो। अर्थात् यज्ञों में आहुति का देवता यही आदि प्रभु है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वेन ऋषिः। बृहस्पतिस्त आदित्यो देवता। १, ३, ४, ६, ७ त्रिष्टुभः। २, ५ भुरिजः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Negativity

    Meaning

    May this holy light of intelligence, received from the universal creative Spirit and shining across the regions of the universe and her children, move forward and rise higher in the service of the first and original cause of the birth of the world. In honour of that Lord, first creator and sustainer, may all people inculcate and advance this brilliant, redoubtable and inspiring vision and passion for enlightenment.

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    Translation

    May this illuminating fatherly speech, present within beings, come to the fore for giving birth to her first born. For him, let them boii this delicious strength giving milk daily, so that the first-born may survive.

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    Translation

    God, the original source of parantage becomes active first for Starting the creation-cycle. He is the pervading in all the worlds. O ye men! Prepare nice warm ghee for the daily yajna to obey the command of Divine Lord who is the first subsisting force.

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    Translation

    Let this royal Vedic speech, prevalent in the world, emanated from God, the Father come unto us for making us lead an excellent life. Perform this pleasant Yajna, the suppressor of the ignoble, free from fault, for the acquisition of that Eternal God, the Nourisher of all.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(इयम्) परिदृश्यमाना (पित्र्या) पितुर्यच्च। पा० ४।३।७९। इति पितृ-यत्, टाप्। पितृसकाशाद् आगता। पैतृका। (राष्ट्री) राजतिः, ऐश्वर्यकर्मा-निरु–० २।२१। सर्वधातुभ्यः ष्ट्रन्। उ० ४।१५९। इति राजृ दीप्तौ, ऐश्वर्ये-ष्ट्रन्। व्रश्चभ्रस्ज०। पा० ८।३।३६। इति षत्वम्। षित्त्वात् ङीप्। पा० ४।१।४१। राष्ट्री, ईश्वरनामसु, निघ० २।२२। राज्ञी। ईश्वरौ। सर्वजगद्व्यवहारस्य नियन्त्री शक्तिः (एतु) गच्छतु। प्राप्नोतु। (अग्रे) अभिमुखम् (प्रथमाय) म० १। प्रख्याताय। प्रधानाय, (जनुषे) जनेरुसिः। उ० २।११५। इति जनी प्रादुर्भावे-उसि। जन्मने। जीवनाय (भुवनेष्ठाः) अ० २।१।४। सर्वलोके स्थिता व्याप्ता (तस्मै) वेनाय (एतम्) समीपस्थम् (सुरुचम्) म० १। सुष्ठु रोचमानम् (ह्वारम्) ह्वृ कौटिल्ये ण्यन्तात् पचाद्यच्। अनिष्टस्य कुटिलीकारकम्। (अह्यम्) अहि गतौ-ण्यत्। संज्ञापूर्वको विधिरनित्यः-इति परिभाषया वृद्धेरभावः। गन्तव्यं प्राप्यम्। यद्वा। भवे छन्दसि। पा० ४।४।११०। इति अहन्-यत्। नस्तद्धिते। पा० ६।४।१४४। इति टिलोपः। अहनि भवम् (घर्मम्) घर्मग्रीष्मौ। उ० १।१४९। इति घृ सेचनदीप्त्योः-मक्। आतपम्। ग्रीष्मम्। स्वेदम्। यज्ञम्, निघ–० ३।१७ (श्रीणन्तु) श्रीञ् पाके। पचन्तु। पक्वं कुर्वन्तु। संस्कुर्वन्तु (धास्यवे) अ० २।१।४। जगतो धारणपोषणेच्छवे ॥

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