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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वेनः देवता - बृहस्पतिः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
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    प्र यो ज॒ज्ञे वि॒द्वान॑स्य॒ बन्धु॒र्विश्वा॑ दे॒वानां॒ जनि॑मा विवक्ति। ब्रह्म॒ ब्रह्म॑ण॒ उज्ज॑भार॒ मध्या॑न्नी॒चैरु॒च्चैः स्व॒धा अ॒भि प्र त॑स्थौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । य: । ज॒ज्ञे । वि॒द्वान् । अ॒स्य॒ । बन्धु॑: । विश्वा॑ । दे॒वाना॑म् । जनि॑म । वि॒व॒क्ति॒ । ब्रह्म॑ । ब्रह्म॑ण: । उत् । ज॒भा॒र॒ । मध्या॑त् । नी॒चै: । उ॒च्चै: ।स्व॒धा । अ॒भि । प्र । त॒स्थौ॒ ॥१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र यो जज्ञे विद्वानस्य बन्धुर्विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति। ब्रह्म ब्रह्मण उज्जभार मध्यान्नीचैरुच्चैः स्वधा अभि प्र तस्थौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । य: । जज्ञे । विद्वान् । अस्य । बन्धु: । विश्वा । देवानाम् । जनिम । विवक्ति । ब्रह्म । ब्रह्मण: । उत् । जभार । मध्यात् । नीचै: । उच्चै: ।स्वधा । अभि । प्र । तस्थौ ॥१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टि विद्या से ब्रह्म का विचार।

    पदार्थ

    (यः विद्वान्) जो विद्वान् परमेश्वर (अस्य) इस [जगत्] का (बन्धुः) बन्धन वा नियम करनेवाला, अथवा, बन्धु हितकारी (प्र) अच्छे प्रकार (जज्ञे) प्रकट हुआ था, और जो (देवानाम्) भूमि, सूर्य आदि दिव्य पदार्थों वा महात्माओं के (विश्वा=विश्वानि) सब (जनिमा) जन्मों को (विवक्ति) बतलाता है। उसने (ब्रह्मणः) ब्रह्म [अपने परब्रह्म स्वरूप] के (मध्यात्) मध्य से (ब्रह्म) वेद को (उज्जहार) उभारा था, वही (नीचैः) नीचे और (उच्चैः) ऊँचे (स्वधाः) अनेक अमृतों वा अन्नों को (अभि=अभिलक्ष्य) सन्मुख करके (प्र) उत्तमता से (तस्थौ) स्थित हुआ था ॥३॥

    भावार्थ

    अनादि, सर्वज्ञ सर्वोत्तम परमात्मा ने सब चराचर जगत् को यथानियम रचा और वेद विद्या को अपने में से प्रकट करके नीचे ऊँचे लोकों की सृष्टि के अनुकूल अन्न आदि पदार्थ उत्पन्न किये हैं, सब मनुष्य उस जगत् नियन्ता की उपासना। द्वारा पुरुषार्थ करके आनन्द भोगे ॥३॥ इस मन्त्र का (विश्वा देवानां जनिमा विवक्ति) यह पाद अथ० २।२८।२। में आया है ॥

    टिप्पणी

    ३−(प्र) प्रकर्षेण। सर्वोपरि (यः) वेनः परमेश्वरः (जज्ञे) जनी प्रादुर्भावे-लिट्। यद्वृत्तान्नित्यम्। पा० ८।१।६६। इति निघातप्रतिषेधः। प्रादुर्बभूव (विद्वान्) अ० २।१।२। ज्ञानी (अस्य) दृश्यमानस्य जगतः (बन्धुः) अ० २।१।३। बन्धकः। नियामकः। बान्धवः (विश्वा) विश्वानि। सर्वाणि (देवानाम्) पृथिवीसूर्यादीनां दिव्यपदार्थानाम्। महात्मनाम् (जनिम=जनिमानि) अ० १।८।४। जन्मविधानानि (विवक्ति) अ० २।२८।२। वच परिभाषणे। आदादिकः। शपः श्लुः। कथयति। उपदिशति (ब्रह्म) वेदम् (ब्रह्मणः) स्वपरब्रह्मस्वरूपस्य (उज्जभार) हृञ् हरणे-लिट्। हृग्रहोर्भश्छन्दसि। वार्त्तिकम्। इति भकारः। उज्जहार। उद्धृतवान्। उत्थापितवान् (मध्यात्) मध्यभागात् (नीचैः) अ० २।३।३। अधोदेशे (उच्चैः) उदि चेर्डैसिः। उ० ५।१२। इति उत्+चिञ् चयने-डैसि। उपरिभागे (स्वधाः) अ० २।२९।७। अन्नानि। पोषकद्रव्याणि (अभि) अभिलक्ष्य (तस्थौ) स्थितवान् ॥

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    विषय

    ज्ञान का मार्ग

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (विद्वान् प्रज)-ज्ञानी बनता है, वह (अस्य बन्धु:) = इस प्रभु का मित्र होता है अपने हृदय में प्रभु को बाँधनेवाला होता है। वह (देवानाम्) = देवों के-दिव्य गुणों के (विश्वा जनिमा) = सब जन्मों को (विवक्ति) = अपने जीवन में कहता है, अर्थात् अपने जीवन को दिव्य गुण सम्पन्न बनाता है। २. (ब्रह्मण:) = ब्रह्म से (ब्रह्म) = वेद को (उजभार) = उद्धृत करता है, अर्थात् हृदय में प्रभु का ध्यान करता हुआ यह विद्वान् ज्ञान को प्राप्त करता है और (मध्यात्) = मध्य से (नीचैः उच्चै:) = नीचे व ऊपर से-अन्तरिक्षलोक से तथा पृथिवी व धुलोक से-हदय, शरीर व मस्तिष्क से (स्वधा:) = आत्मधारण-शक्तियोंवाला यह विद्वान् (अभिप्रतस्थौ) = प्रभु की ओर प्रस्थित होता है "हृदय, शरीर व मस्तिष्क' तीनों को उन्नत करता हुआ यह प्रभु-प्राप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ता

    भावार्थ

    ज्ञानी १. प्रभु को हृदय में बाँधता है, २. दिव्य गुणयुक्त बनता है, ३. प्रभु से वेदज्ञान प्रास करने का यत्न करता है, ४. हृदय, शरीर व मस्तिष्क को उन्नत करता हुआ प्रभु की ओर बढ़ता है

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    भाषार्थ

    (यः) जो प्रजापति परमेश्वर (प्रजज्ञे) प्रज्ञावान या प्रथम प्रकट हुआ, (अस्य) इसका (बन्धुः) बन्धु (विद्वान्) बैदिक विद्वान् (देवानाम्) सूर्यादि देवों के (विश्वा=विश्वानि) सब, (जनिमा=जनिमानि) जन्मों, उत्पत्तियों का, (विवक्ति) विवेकपूर्ण कथन करता है। (ब्रह्म) महाब्रह्माण्ड, (ब्रह्मण:) परब्रह्म के, (मध्यात्) मध्य से, (उज्जभार) उद्धृत हुआ, (नीचेः उच्चैः) नीचे और उच्च स्थान में (स्वधा) इसके निजस्वरूप में धारित हुई प्रकृति ने (अभि) इसके सम्मुख (प्रतस्थौ) जगद्रचना के लिए प्रस्थान किया।

    टिप्पणी

    [प्र जज्ञे= जज्ञानम् (मन्त्र १)।]

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    विषय

    परमेश्वर की उत्पादक और धारक शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः) जो (अस्य) इस संसार का (बन्धुः) बांधने, स्थिर करने हारा, इसका प्रतिष्ठापक है वह (विद्वान् प्रजज्ञे) समस्त संसार के तत्वों को उत्पन्न करता और जानता है। वही (देवानां) प्रकृति के विकारभूत महत् आदि ३३ देवों के (विश्वा जनिमा) उत्पत्ति के सब प्रकारों को (विवक्ति) वेद द्वारा उपदेश करता है। अथवा इसीलिये (ब्रह्मणः) उस महान् जगदुत्पादक पर-ब्रह्म से (ब्रह्म) यह सत्य ज्ञानमय वेद (उत् जभार) उत्पन्न होता है। अथवा उस महान् सच्चिदानन्द ब्रह्म से यह ब्रह्माण्ड मय त्रिविध ब्रह्म तीन लोक उत्पन्न हुए और इसी कारण (स्वधाः) वह स्वयं ही अपने को धारण किये हुए (नीचेः उच्चैः) नीचे और ऊंचे (अभि प्र तस्थौ) सर्वत्र स्थित है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वेन ऋषिः। बृहस्पतिस्त आदित्यो देवता। १, ३, ४, ६, ७ त्रिष्टुभः। २, ५ भुरिजः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Negativity

    Meaning

    That omnipresent and omniscient Spirit which binds and holds this universe together, evolves the specific forms and functions of all divine powers of the universe and proclaims its own existence. That Spirit, Brahma, raises Prakrti from its own self, raises its own voice of the Veda loud and bold, and abides by its Prakrti Shakti everywhere from the centre up and down all round.

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    Translation

    The learned one, who becomes his kin declares birth of all the bounties of Nature. the Lord supreme came out of the Lord supreme. In the middle, downwards and upwards extend his self-sustaining powers.

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    Translation

    He who is the mighty binding force of this universe, is manifest with His omniscience. He preaches of the origins and natures of the all physical forces. The knowledge and speech come into existence from this Supreme Being. He as self subsisting Lord pervades the middle region and regions below and above us.

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    Translation

    God, Who is the Controller of the universe, is the Creator and, Knowerof all objects. He preaches through the Vedas, the different modes of creation of all the forces of Nature like the Sun, Earth, etc. From Him comes the knowledge of the Vedas. Hence, Self-existent He pervades all places low and high.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(प्र) प्रकर्षेण। सर्वोपरि (यः) वेनः परमेश्वरः (जज्ञे) जनी प्रादुर्भावे-लिट्। यद्वृत्तान्नित्यम्। पा० ८।१।६६। इति निघातप्रतिषेधः। प्रादुर्बभूव (विद्वान्) अ० २।१।२। ज्ञानी (अस्य) दृश्यमानस्य जगतः (बन्धुः) अ० २।१।३। बन्धकः। नियामकः। बान्धवः (विश्वा) विश्वानि। सर्वाणि (देवानाम्) पृथिवीसूर्यादीनां दिव्यपदार्थानाम्। महात्मनाम् (जनिम=जनिमानि) अ० १।८।४। जन्मविधानानि (विवक्ति) अ० २।२८।२। वच परिभाषणे। आदादिकः। शपः श्लुः। कथयति। उपदिशति (ब्रह्म) वेदम् (ब्रह्मणः) स्वपरब्रह्मस्वरूपस्य (उज्जभार) हृञ् हरणे-लिट्। हृग्रहोर्भश्छन्दसि। वार्त्तिकम्। इति भकारः। उज्जहार। उद्धृतवान्। उत्थापितवान् (मध्यात्) मध्यभागात् (नीचैः) अ० २।३।३। अधोदेशे (उच्चैः) उदि चेर्डैसिः। उ० ५।१२। इति उत्+चिञ् चयने-डैसि। उपरिभागे (स्वधाः) अ० २।२९।७। अन्नानि। पोषकद्रव्याणि (अभि) अभिलक्ष्य (तस्थौ) स्थितवान् ॥

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