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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वेनः देवता - बृहस्पतिः, आदित्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मविद्या सूक्त
    1

    योऽथ॑र्वाणं पि॒तरं॑ दे॒वब॑न्धुं॒ बृह॒स्पतिं॒ नम॒साव॑ च॒ गच्छा॑त्। त्वं विश्वे॑षां जनि॒ता यथासः॑ क॒विर्दे॒वो न दभा॑यत्स्व॒धावा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अथ॑र्वाणम् । पि॒तर॑म् । दे॒वऽब॑न्धुम् । बृह॒स्पति॑म् । नम॑सा । अव॑ । च॒ । गच्छा॑त् । त्वम् । विश्वे॑षाम् । ज॒नि॒ता । यथा॑ । अस॑: । क॒वि: । दे॒व: । न । दभा॑यत् । स्व॒धाऽवा॑न् ॥१.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    योऽथर्वाणं पितरं देवबन्धुं बृहस्पतिं नमसाव च गच्छात्। त्वं विश्वेषां जनिता यथासः कविर्देवो न दभायत्स्वधावान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अथर्वाणम् । पितरम् । देवऽबन्धुम् । बृहस्पतिम् । नमसा । अव । च । गच्छात् । त्वम् । विश्वेषाम् । जनिता । यथा । अस: । कवि: । देव: । न । दभायत् । स्वधाऽवान् ॥१.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 7
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    हिन्दी (4)

    विषय

    सृष्टि विद्या से ब्रह्म का विचार।

    पदार्थ

    (यः) गतिवाला, पुरुषार्थी पुरुष (अथर्वाणम्) निश्चल, (पितरम्) पिता, (देवबन्धुम्) विद्वानों वा सूर्यादि दिव्य लोकों का बन्धु वा नियामक, (बृहस्पतिम्) बड़े बड़ों के स्वामी परमेश्वर को (नमसा) नमस्कार के साथ (च) निश्चय करके (अव गच्छात्) पहिचाने। [हे परमेश्वर !] (त्वम्) तू (विश्वेषाम्) सब [सुखों] का (जनिता) उत्पादक (असः) हो, (यथा) क्योंकि (कविः) मेधावी, (स्वधावान्) अन्नवान् वा स्वयं धारण सामर्थ्यवाला (देवः) परमेश्वर (न) कभी नहीं (दभायत्) ठगता है ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य विश्वास करके सत्य स्वभाव परमेश्वर से प्रार्थना करें “हे ईश्वर आप दुःखों से मुक्ति दाता हैं और आप कभी किसी को नहीं सताते” और पुरुषार्थ से पाप कर्मों को त्यागकर सुख प्राप्त करें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(यः) यातीति यः। या गतौ-ड। याता। गतिवान्। उद्योगी पुरुषः (अथर्वाणम्) अथर्वाणोऽथर्वन्तस्थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेधः-निरु० ११।१८। स्नामदिपद्यर्त्तिपॄशकिभ्यो वनिप्। उ० ४।११३। इति अ+थर्व चरणे=गतौ-वनिप्। वकारलोपो विकल्पेन। न थर्वति न चरतीति अथर्वा निश्चलः परमेश्वरः। यद्वा। अथ+ऋ गतौ-वनिप्। अथ लोकमङ्गलाय ऋच्छति गच्छति व्याप्नोतीति अथर्वा। निश्चलं मङ्गलाय व्यापकं वा परमात्मानम् (पितरम्) अ० १।२।१। पातारं पालयितारं वा-निरु० ४।१९। (देवबन्धुम्) देवानां विदुषां सूर्यादिदिव्यलोकानां वा बन्धुं हितकरं बन्धकं नियामकं वा (बृहस्पतिम्) बृहतां लोकानां रक्षकम् (नमसा) नमस्कारेण। कराभ्यां शिरः संयोगविशेषेण स्वापकर्षसूचकेन व्यापारभेदेन (च) अवधारणे (अव गच्छात्) अवगच्छेत् जानीयात् (त्वम्) अथर्वा वेनो वा परमेश्वरः (विश्वेषाम्) सर्वेषां सुखानाम् (जनिता) अ० २।१।३। जनयिता (यथा) यस्मात् कारणात् (असः) भवेः (कविः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति कवृ स्तुतौ वर्णे च-इन्। यद्वा अच इः। उ० ४।१३९। इति कु शब्दे-इ। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा निरु० १२।१३। अतीतानागतविप्रकृष्टविषयं युग्पत् ज्ञानं यस्य स क्रान्तदर्शनः-इति देवराजयज्वा निरुक्तटीकाकारः-निघ० ३।१५। मेधावी-निघ० ३।१५। ब्रह्मा पण्डितः। (देवः) दीप्यमानः (न) नहि (दभायत्) दम्भु दम्भे=वञ्चने। छन्दसि शायजपि। पा० ३।१।८४। इति श्नः शायच्। इकारलोपश्च। दभ्नोति वञ्चति (स्वधावान्) अन्नवान्। स्वयं धारणवान् ॥

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    विषय

    नम्रता द्वारा प्रभु का ज्ञान

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (अथर्वाणम्) = [थर्वतिचरतिका] निश्चल, कुटस्थ (पितरम्) = सबके पालक (देवबन्धुम्) = देववृत्ति के व्यक्तियों के बन्धु (च) = और (बृहस्पतिम्) = ब्रह्मणस्पति-ज्ञान के स्वामी प्रभु को (नमसा अवगच्छात्) = नमन के द्वारा जानता है। वह जानता है (यथा) = कि हे प्रभो! (त्वम्) = आप (विश्वेषां जनिता असः) = सबके प्रादुर्भूत करनेवाले हैं। उपासक नम्रता के द्वारा प्रभु को सबके उत्पादक के रूप में जान पाता है। २. यह जानता है कि (कविः) = वे प्रभु क्रान्तदर्शी हैं-सर्वज्ञ हैं, (देव:) = प्रकाशमय हैं-सबके प्रकाशित करनेवाले हैं, वे सब-कुछ देनेवाले हैं [देवो दानाद्वा दीपनाद्वा द्योतनाद्वा]। (न दभायत्) = वे प्रभु उपासक को कभी हिंसित नहीं होने देते, वासनाओं के आक्रमण से उपासक को प्रभु ही बचाते हैं, (स्व-धावान्) = प्रभु आत्मधारण शक्तिवाले हैं अथवा [स्वधा-अन्न] धारण करने के लिए सब अन्नों को प्राप्त करानेवाले हैं।

    भावार्थ

    नम्नता द्वारा हम प्रभु के स्वरूप को जानने का प्रयत्न करें। इन्हें सर्वोत्पादक, सर्वज्ञ, सर्वप्रद, रक्षक व अन्नदाता के रूप में देखें। अगले सूक्त का ऋषि भी 'वेन' ही है -

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    भाषार्थ

    (यः) जो उपासक, (अथर्वाणम्), अचल कूटस्थ, (पितरम्) सबके पिता, (देवबन्धुम्) उपासक-देवों के बन्धु, (बृहस्पतिम्) बृहद्-ब्रह्माण्ड के स्बामी को (नमसा) नमस्कार द्वारा (च) और सेवापूर्वक (अवगच्छत) प्राप्त होता और, अवगत करता, अर्थात् जाने, [और कहे] कि "(त्वम्) तू (विश्वेषाम्) सबका (जनिता) उत्पादक, (कविः) वेद और संसार का कर्ता, (देवः) सबका दाता, (स्वधावान्) स्वनिष्ठ प्रकृतिवाला (यथा असः) जैसे कि तु है वह (न दभायत्) तू किसी की हिंसा नहीं करता।"

    टिप्पणी

    [अथर्वाणम्=थर्वतिः चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः (निरुक्त २१/२।१९)। न दभायत्=प्रजापति-परमेश्वर किसी की हिंसा नहीं करता, अपितु वहह न्यायानुसार दुःख, कष्ट और मृत्यु प्रदान कर, और नव जन्म प्रदान कर सबको उन्नतिपथानुगामी करता रहता, तथा मोक्ष-सुख प्रदान करता है। देवबन्धुम्= "स नो बन्धुर्जनिता स बिधाता" (यजु० ३२।१०)।]

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    विषय

    परमेश्वर की उत्पादक और धारक शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः) जो (अथर्वाणम्) अथर्वा, अहिंसक, सब के परिपालक (पितरम्) सब के उत्पादक, पालक, (देवबन्धुम्) समस्त दिव्य लोकों को बांधने हारे, (बृहस्पतिम्) बड़े २ लोकों के स्वामी प्रभु को (नमसा) आदर अर्थात् भक्ति भाव से या सब के अन्न रूप से या आश्रयभूत प्राणों के प्राणरूप से (अव गच्छात्) जान लेता है और समझ लेता है कि (त्वं) तू ही हे प्रभो ! (विश्वषां) सब लोकों का (जनिता) उत्पादक (असः) है, (स्वधावान्) वह स्वधा अर्थात् अमृत को प्राप्त कर स्वयं सब का पोषण करनेहारा (कविः) लोगों को उस मार्ग का उपदेश करने वाला होकर, (देवः) स्वयं विद्वान् होकर कभी (न दभायत्) विनष्ट नहीं होता, परम सुख को प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वेन ऋषिः। बृहस्पतिस्त आदित्यो देवता। १, ३, ४, ६, ७ त्रिष्टुभः। २, ५ भुरिजः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Negativity

    Meaning

    Whoever with homage and humility approaches Brhaspati, lord of Infinity, eternal immutable, kind as a parent, ordainer and sustainer of the noble, as brother, saying: “You, O lord, are the sole creator and protector of all that is in the universe”, that poetic visionary would rise to a state of essential strength of mind and spirit where no one can possibly deceive, suppress or subdue him.

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    Translation

    Whoever knows and bows in reverence to the unmoving fatherly and friend of the enlightened ones, the Lord Supreme, and who says unto him that you are the creater of all, such a self-controlling sage and enlightened one never gets harmed.

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    Translation

    He who describing Him that He is the creator of all the universes, worships with devotion to Him who is merciful, protector of all, integrating force among all the wonderful forces and the Lord of the Vedic Speech, never sustain harms attaining immortality, becoming enlightened, wise and powerful.

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    Translation

    He, who in a spirit of devotion understands the Non-violent God, the Father, the Friend of the learned, and the Lord of mighty worlds, thus prays unto Him. O God, Thou art the Creator of all, the Sustainer of all, Wise, Omniscient and Imperishable!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(यः) यातीति यः। या गतौ-ड। याता। गतिवान्। उद्योगी पुरुषः (अथर्वाणम्) अथर्वाणोऽथर्वन्तस्थर्वतिश्चरतिकर्मा तत्प्रतिषेधः-निरु० ११।१८। स्नामदिपद्यर्त्तिपॄशकिभ्यो वनिप्। उ० ४।११३। इति अ+थर्व चरणे=गतौ-वनिप्। वकारलोपो विकल्पेन। न थर्वति न चरतीति अथर्वा निश्चलः परमेश्वरः। यद्वा। अथ+ऋ गतौ-वनिप्। अथ लोकमङ्गलाय ऋच्छति गच्छति व्याप्नोतीति अथर्वा। निश्चलं मङ्गलाय व्यापकं वा परमात्मानम् (पितरम्) अ० १।२।१। पातारं पालयितारं वा-निरु० ४।१९। (देवबन्धुम्) देवानां विदुषां सूर्यादिदिव्यलोकानां वा बन्धुं हितकरं बन्धकं नियामकं वा (बृहस्पतिम्) बृहतां लोकानां रक्षकम् (नमसा) नमस्कारेण। कराभ्यां शिरः संयोगविशेषेण स्वापकर्षसूचकेन व्यापारभेदेन (च) अवधारणे (अव गच्छात्) अवगच्छेत् जानीयात् (त्वम्) अथर्वा वेनो वा परमेश्वरः (विश्वेषाम्) सर्वेषां सुखानाम् (जनिता) अ० २।१।३। जनयिता (यथा) यस्मात् कारणात् (असः) भवेः (कविः) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति कवृ स्तुतौ वर्णे च-इन्। यद्वा अच इः। उ० ४।१३९। इति कु शब्दे-इ। कविः क्रान्तदर्शनो भवति कवतेर्वा निरु० १२।१३। अतीतानागतविप्रकृष्टविषयं युग्पत् ज्ञानं यस्य स क्रान्तदर्शनः-इति देवराजयज्वा निरुक्तटीकाकारः-निघ० ३।१५। मेधावी-निघ० ३।१५। ब्रह्मा पण्डितः। (देवः) दीप्यमानः (न) नहि (दभायत्) दम्भु दम्भे=वञ्चने। छन्दसि शायजपि। पा० ३।१।८४। इति श्नः शायच्। इकारलोपश्च। दभ्नोति वञ्चति (स्वधावान्) अन्नवान्। स्वयं धारणवान् ॥

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