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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वा देवता - शङ्खमणिः, कृशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त
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    यो अ॑ग्र॒तो रो॑च॒नानां॑ समु॒द्रादधि॑ जज्ञि॒षे। श॒ङ्खेन॑ ह॒त्वा रक्षां॑स्य॒त्त्रिणो॒ वि ष॑हामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒ग्र॒त: । रो॒च॒नाना॑म् । स॒मु॒द्रात् । अधि॑ । ज॒ज्ञि॒षे । श॒ङ्खेन॑ । ह॒त्वा । रक्षां॑सि । अ॒त्त्रिण॑: । वि । स॒हा॒म॒हे॒ ॥१०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अग्रतो रोचनानां समुद्रादधि जज्ञिषे। शङ्खेन हत्वा रक्षांस्यत्त्रिणो वि षहामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अग्रत: । रोचनानाम् । समुद्रात् । अधि । जज्ञिषे । शङ्खेन । हत्वा । रक्षांसि । अत्त्रिण: । वि । सहामहे ॥१०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विघ्नों के हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (यः= यः त्वम्) जो तू (रोचनानाम्) प्रकाशमान लोकों के (अग्रतः) आगे और (समुद्रात्) जलसमूह समुद्र से भी (अधि) ऊपर [देश और काल में] (जज्ञिषे) प्रकट हुआ था, [उस तुझ] (शङ्खेन) सबों के विवेचन करनेवाले, वा देखनेवाले, वा शान्ति देनेवाले, परमेश्वर [के आश्रय] से (रक्षांसि) जिन से रक्षा की जावे उन राक्षसों को (हत्वा) मारकर (अत्रिणः) पेटार्थियों को (वि) विविध प्रकार से (सहामहे) हम दबाते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    सर्वदा सर्वोपरि विराजमान परमेश्वर की महिमा और उपकारों को विचारकर, हम लोग कुव्यवहार से बचकर पुरुषार्थ के साथ आनन्द भोगें ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(यः) हे शङ्ख यस्त्वम् (अग्रतः) अग्रे। आदौ (रोचनानाम्) अनुदात्तेतश्च हलादेः। पा० ३।२।१४९। इति रुच दीप्तौ-युच्। प्रकाशमानानां नक्षत्रादीनाम् (समुद्रात्) जलसमूहात् (अधि) उपरि देशे काले च (जज्ञिषे) जनी-लिट्। त्वं प्रादुर्बभूविथ (शङ्खेन) म० १। सर्वेषां विवेचकेन दर्शकेन शान्तिदायकेन वा परमेश्वरेण (हत्वा) नाशयित्वा (रक्षांसि) अ० १।२१।३। राक्षसान्। शत्रून् (अत्रिणः) अ० १।७।३। अद भक्षणे-त्रिनि। भक्षणशीलान्। उदरपोषकान् (वि) विशेषेण (सहामहे) अभिभवामः ॥

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    विषय

    रक्षो हनन व अत्त्रि-पराभव

    पदार्थ

    १. (य:) = जो प्रभु (रोचनानाम् अग्रत:) = देदीप्यमान पदार्थों में सर्वाग्रणी हैं, वे प्रभु (समुद्रात् अधि जज्ञिषे) = [समुद्र] प्रसन्नता युक्त मन से प्रादुर्भूत होते हैं। मनःप्रसाद होने पर हृदय में प्रभु का प्रकाश होता है। प्रभु के प्रकाश से ही सब पिण्ड चमक रहे हैं-('तस्य भासा सर्वमिदं विभाति') २. हृदय में प्रादुर्भूत हुए-हुए इस (शंखेन) = इन्द्रियों को शान्ति देनेवाले प्रभु से (रक्षांसि) = सब राक्षसी भाबों को (हत्वा) = विनष्ट करके (अत्त्रि) = हमें खा जानेवाले रोगकृमियों को भी (विषहामहे) = विशेषेण अभिभूत करते हैं। रक्षोहनन द्वारा मानस स्वास्थ्य सिद्ध होता है और अत्रि-विध्वंस द्वारा शरीर नीरोग बनता है।

    भावार्थ

    प्रसन्न हृदय में उस ज्योतिर्मय प्रकाश को देखते हुए हम राक्षसी वृत्तियों का विध्वंस करके स्वस्थ मन बनें और रोगकृमियों का पराभव करते हुए हमारे शरीर स्वस्थ हों।

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    भाषार्थ

    (यः) जो (रोचनानाम्) चमकते पदार्थों में (अग्रतः) मुखिया है, श्रेष्ठ पदार्थ है, (समुद्रात् अधि) बह तू समुद्र से (जज्ञिषे) पैदा हुआ है। (शङ्खेन) उस शङ्ख द्वारा (रक्षांसि) रोग-कीटाणु-राक्षसों का (हत्वा) हनन करके (अत्रिण:) रक्त, मांसादि को खा जानेवाले रोग कीटाणुओं का (वि षहामहे) हम विशेष पराभव करते हैं।

    टिप्पणी

    [शङ्ख के नाद द्वारा राक्षसों और अत्रियों का हनन तथा पराभव नहीं होता। ये गुण शङ्ख की भस्म में हैं, जैसाकि मन्त्र १ की व्याख्या में दर्शा दिया है। समुद्र उत्पन्न पदार्थों में शङ्ख१ अधिक रोचन है, चमकता है।] [१. शख:= शाम्यतीति वा: ''शम् खेभ्यः" इन्द्रियेभ्यो वा।]

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    विषय

    शंख के दृष्टान्त से आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार समुद्र से शंख उत्पन्न होता है और उसका नाद बजा कर योद्धा राक्षसों और चोरों पर विजय पाता है उसी प्रकार (यः) जो (रोचनानां) सब कान्तिमान् इन्द्रियों के (अग्रतः) पूर्व, सर्वश्रेष्ठ (समुद्राद्) सब आनन्द रसों के सागर, सर्वशक्तिमान् ब्रह्म परमात्मा से ही (अधि जज्ञिषे) ज्ञान प्राप्त करता है उस (शंखेन) आत्मा रूप शंख से (रक्षांसि) विघ्नों को या व्युत्थानकारी मानस विक्षोभों को और (अत्रिणः) आत्मा की विभूतियों के विनाशक विषयों को या विषयभोगी इन्द्रियों को (वि सहामहे) नाना प्रकार से वश करते हैं। आत्मा के ज्ञानमय, अनाहत शंखनाद से विषय वासना नष्ट होती और अन्तर्वृत्ति होकर इन्द्रियां वश में होती हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। शंखमणिशुक्तयो देवताः। १-५ अनुष्टुभः, ६ पथ्यापंक्तिः, ७ पचपदा परानुष्टुप् शक्वरी । सप्तर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shankha-mani

    Meaning

    By Shankha which arises from the sea in advance of the brilliant ones in quality, we destroy life¬ consuming evil elements of nature in the body system.

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    Translation

    With you the (pearl) shell, who are foremost among the glittering ones, and who are born from the ocean, having killed the germs, we over-power the flesh-eating worms (devourers).

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    Translation

    We killing the devouring disease germs destroy the diseases through the use of Shankha, the conch which is the important one among the objects of transparency and which springs out from the ocean.

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    Translation

    Just as a shell is born out of the sea, and warrior achieves victory over thieves and dacoits by blowing it, so does the soul, the lord of organs, receives knowledge from God, the ocean of delight. With the help of that shell of a soul, we subdue all obstacles and voluptuous organs.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(यः) हे शङ्ख यस्त्वम् (अग्रतः) अग्रे। आदौ (रोचनानाम्) अनुदात्तेतश्च हलादेः। पा० ३।२।१४९। इति रुच दीप्तौ-युच्। प्रकाशमानानां नक्षत्रादीनाम् (समुद्रात्) जलसमूहात् (अधि) उपरि देशे काले च (जज्ञिषे) जनी-लिट्। त्वं प्रादुर्बभूविथ (शङ्खेन) म० १। सर्वेषां विवेचकेन दर्शकेन शान्तिदायकेन वा परमेश्वरेण (हत्वा) नाशयित्वा (रक्षांसि) अ० १।२१।३। राक्षसान्। शत्रून् (अत्रिणः) अ० १।७।३। अद भक्षणे-त्रिनि। भक्षणशीलान्। उदरपोषकान् (वि) विशेषेण (सहामहे) अभिभवामः ॥

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