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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
    ऋषिः - अथर्वा देवता - शङ्खमणिः, कृशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त
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    स॑मु॒द्राज्जा॒तो म॒णिर्वृ॒त्राज्जा॒तो दि॑वाक॒रः। सो अ॒स्मान्त्स॒र्वतः॑ पातु हे॒त्या दे॑वासु॒रेभ्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒मु॒द्रात् । जा॒त: । म॒णि: । वृ॒त्रात् । जा॒त: । दि॒वा॒ऽक॒र: । स: । अ॒स्मान् । स॒र्वत॑: । पा॒तु॒ । हे॒त्या: । दे॒व॒ऽअ॒सु॒रेभ्य॑: ॥१०.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समुद्राज्जातो मणिर्वृत्राज्जातो दिवाकरः। सो अस्मान्त्सर्वतः पातु हेत्या देवासुरेभ्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    समुद्रात् । जात: । मणि: । वृत्रात् । जात: । दिवाऽकर: । स: । अस्मान् । सर्वत: । पातु । हेत्या: । देवऽअसुरेभ्य: ॥१०.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विघ्नों के हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (वृत्रात्) ढकनेवाले मेघ से (जातः) प्रकट हुए (दिवाकरः) सूर्य [के समान] (समुद्रात्) अन्तरिक्ष से (जातः) प्रकट हुआ (मणिः) प्रशंसायोग्य (सः) दुःखनाशक, विष्णु (अस्मान्) हमको (सर्वतः) सब ओर से (हेत्या) अपने वज्र द्वारा (देवासुरेभ्यः) देवताओं के गिरानेवाले शत्रुओं से (पातु) बचावे ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य मेघमण्डल से निकल कर देदीप्यमान होता है, इसी प्रकार परमात्मा अन्तरिक्षस्थ प्रत्येक पदार्थ से विज्ञानियों को प्रकाशमान दीखता है। वह जगदीश्वर दुष्टों को दण्ड और शिष्टों को आनन्द देता है ॥५॥

    टिप्पणी

    ५−(समुद्रात्) अन्तरिक्षात्। अन्तरिक्षस्थलोकजातात् (जातः) प्रादुर्भूतः। ज्ञातः (मणिः) म० ४। प्रशंसनीयः परमेश्वरः (वृत्रात्) अ० २।५।३। आवरकाद् मेघात् (दिवाकरः) दिवाविभानिशा०। पा० ३।२।२१। इति दिवा+कृञ् करणे-ट। दिवा दिनं करोतीति। सूर्यः। लुप्तोपममेतत्। तद्वत् प्रभातिशययुक्तः परमेश्वरः (सः) म० १। दुःखनाशक ईश्वरः (अस्मान्) वेदानुगामिनः पुरुषान् (सर्वतः) सर्वस्मादुपद्रवात् (पातु) रक्षतु (हेत्या) अ० १।१३।३। वज्रेण-निघ० ३।२०। (देवासुरेभ्यः) असेरुरन्। उ० १।४२। इति असु क्षेपणे-उरन्। अस्यति क्षिपति देवान् सोऽसुरः। देवानां धर्मात्मनाम् असुरेभ्यः क्षेपकेभ्यः सकाशात् ॥

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    विषय

    वृत्रात् जात: दिवाकरः

    पदार्थ

    १. (समुद्रात्) = अन्तरिक्ष से [समुद्रम्-अन्तरिक्षम्-निरु०] (जात:) = प्रादुर्भूत हुआ-हुआ [अन्तरिक्ष में सर्वत्र प्रभु की महिमा का प्रकाश होता ही है] अथवा [स+मुद्] प्रसादमय हृदयान्तरिक्ष में प्रकट हुआ-हुआ (मणि:) = धर्म की प्रेरणा देनेवाले प्रभु इसप्रकार देदीप्यमान होते हैं, जैसेकि (वृत्रात्) = आवरक मेघ से (जात:) = प्रादुर्भूत हुआ-हुआ (दिवाकरः) = सूर्य। मेघ के आवरण के हटने पर जैसे सूर्य चमक उठता है, उसी प्रकार वासना के आवरण के हटने पर हृदय में प्रभु का प्रकाश चमक उठता है। २. (सः) = वह प्रभु (अस्मान्) = हमें (सर्वतः पातुः) = सब ओर से रक्षित करें। (हेत्या) = हनन की प्रवृत्तियों से वे प्रभु हमें बचाएँ। हम हिंसक वृत्तिवाले न बन जाएँ। देवासुरेभ्यः-[देवान् अस्यन्ति] दिव्यभावों को दूर फेंकनेवाले आसुरीभावों से भी वे प्रभु हमें बचाएँ। प्रभु से दूर होने पर जीवन में घात-पात की प्रवृत्तियों प्रबल हो उठती है।

    भावार्थ

    प्रभु सूर्य के समान चमकते हैं। जब हृदय से वासना के मेघ का विलय हो जाता है तब प्रभु हमें पापों, हिंसाओं व आसुरी प्रवृत्तियों से बचाते हैं।

     

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    भाषार्थ

    (समुद्रात) समुद्र से (जात:) पैदा हुआ, (मणि:) बहुमूल्य पाषाण के सदृश बहुमूल्यवान् शङ्ख है। (वृत्रात्) अन्तरिक्ष का आवरण करनेवाले मेघ से (जातः) पैदा हुआ, (दिवाकरः) दिन के करनेवाले सूर्य के सदृश पीतवर्णी है। (सः) वह शङ्ख (सर्वतः) सब ओर से (अस्मान् पातु) हमारी रक्षा करे वह (हेत्या) अपने शस्त्र से (देवासुरेभ्यः) देवों और असुरों से रक्षा करे।

    टिप्पणी

    [वृत्र है मेघ, जोकि अंतरिक्ष का आवरण करता है। मेघ के जल से शंख पैदा होता है। यद्यपि शंख समुद्र से पैदा होता है तो भी इसे मेवोत्पन्न कहा है, समुद्र में जल की सत्ता मेघवृष्ट जल द्वारा ही होती है। जैसे शङ्ख मेघीय जल से पैदा होता है, इसी प्रकार मेघ द्वारा आवृत सूर्य भी मेघावरण के हट जाने पर मानो पैदा होता है। उस समय पीतवर्णी सूर्य के सदृश, पीतवर्णी शङ्ख चमकता है। देवासुरेभ्यः पातु= दिव्य तत्त्व है अग्नि, विद्युत्, सूर्यादि और आसुर तत्व हैं अन्धकारोत्पन्न मच्छर, सर्प आदि। इन द्विविध तत्वों से उत्पन्न रोगों से शङ्खभस्म, विशेषतया हिरण्यपरिपाक के साथ परिपक्व शंखभस्म, रक्षा करती है। सायण ने 'सः' द्वारा 'शङ्खविकारो मणि:' का ग्रहण किया है। यहां विकार से संभवतः शङ्खविकृत कोई औषधिविशेष अभिप्रेत हो।]

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    विषय

    शंख के दृष्टान्त से आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    वह शंख रूप आत्मा (मणिः) प्रकाशस्वरूप होकर भी (समुद्रात्) समुद्र से उत्पन्न मणि के समान उस ज्ञान और ज्योति के परम सागर से (जातः) ज्ञान और ज्योति को प्राप्त करता है। और (वृत्रात् जातः दिवाकरः) जिस प्रकार मेघ के आवरण से मुक्त होकर सूर्य अपने तापकारी किरणों से चमकने लगता है उसी प्रकार अज्ञान के आवरण से मुक्त होकर आदित्य रूप होकर वह आत्मा चमकने लगता है। वह आदित्य रूप ज्ञानवान् आत्मा (देवासुरेभ्यः) देवों=ज्ञान-इन्द्रियगण और असुर = प्राणेन्द्रियों से हमें अपने (हेत्या) विषय-वासनाओं को मार गिराने वाले ज्ञानवज्र द्वारा (नः) हमारी (पातु) रक्षा करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। शंखमणिशुक्तयो देवताः। १-५ अनुष्टुभः, ६ पथ्यापंक्तिः, ७ पचपदा परानुष्टुप् शक्वरी । सप्तर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shankha-mani

    Meaning

    Just as the sun appears from the depth of the clouds of darkness, so the Shankha is born of the sea. May the Shankha so born and collected with its action and efficacy protect us against the blazing heat and onslaughts of the violence of natural and human forces.

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    Translation

    The (pearl) jewel is born from the ocean as the sun is born from the covering cloud. May that jewel protect us from all sides from the weapons of the enlightened ones and of the evil ones.

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    Translation

    The manih, the conch which is born from ocean Protect us on all sides by its powerful effect from the diseases Possessed of lesser ills and from the diseases creating greater ills like the Sun free from the overwhelming effect of cloud.

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    Translation

    The resplendent soul, receives knowledge and light from God, the Ocean of "knowledge and light. Just as the sun released from the covering of the cloud, shines with his glowing rays, so does the soul shine, released from the covering of ignorance. May the learned soul, save us with its shaft of knowledge, from passions that degrade the sages.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५−(समुद्रात्) अन्तरिक्षात्। अन्तरिक्षस्थलोकजातात् (जातः) प्रादुर्भूतः। ज्ञातः (मणिः) म० ४। प्रशंसनीयः परमेश्वरः (वृत्रात्) अ० २।५।३। आवरकाद् मेघात् (दिवाकरः) दिवाविभानिशा०। पा० ३।२।२१। इति दिवा+कृञ् करणे-ट। दिवा दिनं करोतीति। सूर्यः। लुप्तोपममेतत्। तद्वत् प्रभातिशययुक्तः परमेश्वरः (सः) म० १। दुःखनाशक ईश्वरः (अस्मान्) वेदानुगामिनः पुरुषान् (सर्वतः) सर्वस्मादुपद्रवात् (पातु) रक्षतु (हेत्या) अ० १।१३।३। वज्रेण-निघ० ३।२०। (देवासुरेभ्यः) असेरुरन्। उ० १।४२। इति असु क्षेपणे-उरन्। अस्यति क्षिपति देवान् सोऽसुरः। देवानां धर्मात्मनाम् असुरेभ्यः क्षेपकेभ्यः सकाशात् ॥

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