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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - शङ्खमणिः, कृशनः छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त
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    हिर॑ण्याना॒मेको॑ऽसि॒ सोमा॒त्त्वमधि॑ जज्ञिषे। रथे॒ त्वम॑सि दर्श॒त इ॑षु॒धौ रो॑च॒नस्त्वं प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यानाम् । एक॑: । अ॒सि॒ । सोमा॑त् । अधि॑ । ज॒ज्ञि॒षे॒ । रथे॑ । त्वम् । अ॒सि॒ । द॒र्श॒त: । इ॒षु॒ऽधौ । रो॒च॒न: । त्वम् । प्र । न॒: । आयूं॑षि । ता॒रि॒ष॒त् ॥१०.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यानामेकोऽसि सोमात्त्वमधि जज्ञिषे। रथे त्वमसि दर्शत इषुधौ रोचनस्त्वं प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यानाम् । एक: । असि । सोमात् । अधि । जज्ञिषे । रथे । त्वम् । असि । दर्शत: । इषुऽधौ । रोचन: । त्वम् । प्र । न: । आयूंषि । तारिषत् ॥१०.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

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    पदार्थ

    (हिरण्यानाम्) सूर्यादि तेजों के बीच तू (एकः) एक (असि) है, (त्वम्) तू (सोमात्) सूर्यलोक से (अधि) ऊपर (जज्ञिषे) प्रकट हुआ था, (त्वम्) तू (रथे) रथ में (दर्शतः) दृश्यमान और (त्वम्) तू (इषुधौ) तूणीर में (रोचनः) प्रकाशमान (असि) है। [आप] (नः) हमारे (आयूंषि) जीवनों को (प्रतारिषत्) बढ़ावें ॥६॥

    भावार्थ

    अद्वितीय प्रकाशस्वरूप परमात्मा सूर्यादि लोकों से काल और विस्तार में बड़ा है, वही रथारूढ़ और बाणधारी शूर को रणक्षेत्र में बल देता है, उसी जगदीश्वर के आश्रय से हम अपना जीवन धार्मिक बनाकर आनन्द भोगें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(हिरण्यानाम्) अन्धकारहरणशीलानां सूर्यादितेजसां मध्ये (एकः) अद्वितीयः (असि) (सोमात्) सोमः सूर्यः प्रसवनात्-निरु० १४।१२। सूर्यलोकात् (त्वम्) (अधि) उपरि देशे काले च (जज्ञिषे) प्रादुर्बभूविथ (रथे) हनिकुषिनीरमिकाशिभ्यः क्थन्। उ० २।२। इति रमु क्रीडने क्थन्। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद् विपरीतस्य रममाणोऽस्मिंस्तिष्ठतीति वा रपतेर्वा रसतेर्वा-निरु० ९।११। रमणीये याने। रथारूढे, इत्यर्थः (त्वम् असि) (दर्शतः) भृमृदृशि०। उ० ३।११०। इति दृशिर् प्रेक्षणे-अतच्। दृश्यमानः (इषुधौ) अ० ३।२३।३। बाणाधारे। तूणीरे (रोचनः) रोचमानः। दीप्यमानः (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनानि (प्रतारिषत्) अ० २।४।६। लेटि रूपम्। प्रवर्धयेत्, भवान् इति शेषः ॥

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    विषय

    हिरण्यानाम् एकः

    पदार्थ

    १. हे प्रभो! आप (हिरण्यनाम्) = ज्योतिर्मय पदार्थों में (एकः असि) = अद्वितीय हैं। वस्तुत: सब ज्योतिर्मय पदार्थों को ज्योति आप ही प्रास कराते हैं। (सोमात्) = शरीर में सुरक्षित सोम से (त्वम्) = आप (अधिजज्ञिषे) = प्रादुर्भूत होते हैं-शरीर में सुरक्षित सोम ही आपके दर्शन का कारण बनता है। (रथे) = इस शरीर-रथ में (त्वम्) = आप (दर्शत: असि) = दर्शनीय है। प्रभु का दर्शन बाहर न होकर यहाँ अन्दर ही होता है। वह प्रभु (न:) = हमारे (आयूंषि) = आयुष्य को (प्रतारिषत्) = बढ़ाए-हमें दीर्घजीवी बनाए।

    भावार्थ

    उस सर्वतो दीसिमान प्रभु का प्रकाश वही देखता है जो शरीर में सोम का रक्षण करता है। वे प्रभु इस शरीर में ही दर्शनीय हैं। प्रेरणा को सुननेवालों में प्रदीप्त होते हैं, उसके अनुग्रह से हम दीर्घजीवी बनें।

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    भाषार्थ

    [हे शंख!] (हिरण्यानाम्) हिरण्य-सदृश चमकीले पदार्थों में (एक: असि) तु भी एक चमकीला पदार्थ है, (त्वम्) तू (सोमात् अधि) जल से या मानो चन्द्रमा से (जज्ञिषे) पैदा हुआ है। (रथे) योद्धा के रथ में (त्वम्) तू (दर्शतः) दर्शनीय (असि) होता है, (इषुधौ) इषुओं को धारण करनेवाले निषङ्ग में, तूणीर में (त्वम्) तू (रोचन:) चमकता है। (न:) हमारी (आयूंषि) आयुओं को (प्र तारिषत्) वह बढ़ाये।

    टिप्पणी

    [सोम=जल (आप्टे)। अथवा सोम=चन्द्रमा। चन्द्रमा पृथिवी का उपग्रह है, पृथिवी की परिक्रमा करता और पृथिवी से कटकर अलग हुआ है। पृथिवी से शङ्ख पैदा होता है। सम्भवतः चन्द्रमा में भी किसी समय समुद्र की स्थिति हो और उसमें भी किसी समय शङ्ख उत्पन्न हुए हों। सम्भवतः इसीलिए 'शङ्खप्रस्थः' नामक एक स्थान-विशेष चन्द्रमा में है (आप्टे)। योद्धाओं के रथ में शङ्ख की स्थिति कही है। युद्ध-काल में यह शत्रु की स्थिति तथा उसकी चाल-ढाल को सूचित कर सकने के लिए है। इसी प्रकार योद्धा के निषङ्ग में भी उसकी स्थिति कही है। रथ में स्थिति तो रथ-योद्धा के लिए है, और निपङ्ग में स्थिति पदाति-योद्धा के लिए कही है।]

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    विषय

    शंख के दृष्टान्त से आत्मा का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (दर्शत) दर्शनीय ! योग सामाघिद्वारा प्रत्यक्ष करने योग्य एकमात्र दर्शनीय रूप आत्मन् ! तू (हिरण्यानाम्) अभिराम,रमणीय एवं कान्तिमान् या चेतनावान् इन्द्रियगणों में, ताराओं में सूर्य के समान उनका भी प्रकाशक (एकः, असि) एक अद्वितीय ही है। और (सोमात्) सब के उत्पादक एवं प्रेरक ज्ञानमय, चेतनामय और आनन्दमय परब्रह्म से (अघि जज्ञिषे) आनन्द प्राप्त करके आनन्दमय हो जाता है। (रथे) इस देहमय रथ में विराजमान होकर (दर्शतः स्वम् असि) तू और भी दर्शनीय है और (इषु-धौ) इषु = मनः कामनाओं के धारण करने हारे मन पर भी वश करके (रोचनः) उससे अधिक कान्तिमान् होकर (त्वं) तू (नः आयूंषि) हमारे आयुओं, जीवनों को (तारिषत्) तरा देता है, सफल कर देता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। शंखमणिशुक्तयो देवताः। १-५ अनुष्टुभः, ६ पथ्यापंक्तिः, ७ पचपदा परानुष्टुप् शक्वरी । सप्तर्चं सूक्तम्।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shankha-mani

    Meaning

    Of the golden gifts of nature you are the one unique born with the soothing golden beauty of Soma, the moon. You are the glorious hero of the chariot and shine blazing in the quiver. Pray give us a long life of good health and joyous fulfilment.

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    Translation

    You are one of the golds (precious materials). You have been born out of the moon. You look beautiful on the chariot and shine on the quiver. May you prolong our days of life.

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    Translation

    This Conch is one of the objects of luster. This springs out from the water. In Chariot it is beautiful, it is shining one when fixed on the quivers. Let it prolong our lives.

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    Translation

    O soul, realizable through yoga, peerless art thou among the conscious organs. Thou gladdenest on receiving gladness from God. Thou art beautiful seated in the bodily car. Thou gleamest on controlling the cravings of the mind. May thou prolong our days of life!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(हिरण्यानाम्) अन्धकारहरणशीलानां सूर्यादितेजसां मध्ये (एकः) अद्वितीयः (असि) (सोमात्) सोमः सूर्यः प्रसवनात्-निरु० १४।१२। सूर्यलोकात् (त्वम्) (अधि) उपरि देशे काले च (जज्ञिषे) प्रादुर्बभूविथ (रथे) हनिकुषिनीरमिकाशिभ्यः क्थन्। उ० २।२। इति रमु क्रीडने क्थन्। रथो रंहतेर्गतिकर्मणः स्थिरतेर्वा स्याद् विपरीतस्य रममाणोऽस्मिंस्तिष्ठतीति वा रपतेर्वा रसतेर्वा-निरु० ९।११। रमणीये याने। रथारूढे, इत्यर्थः (त्वम् असि) (दर्शतः) भृमृदृशि०। उ० ३।११०। इति दृशिर् प्रेक्षणे-अतच्। दृश्यमानः (इषुधौ) अ० ३।२३।३। बाणाधारे। तूणीरे (रोचनः) रोचमानः। दीप्यमानः (नः) अस्माकम् (आयूंषि) जीवनानि (प्रतारिषत्) अ० २।४।६। लेटि रूपम्। प्रवर्धयेत्, भवान् इति शेषः ॥

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