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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मृगारः देवता - वायुः, सविता छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
    1

    प्र सु॑म॒तिं स॑वितर्वाय ऊ॒तये॒ मह॑स्वन्तं मत्स॒रं मा॑दयाथः। अ॒र्वाग्वा॒मस्य॑ प्र॒वतो॒ नि य॑च्छतं॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । सु॒ऽम॒तिम् । स॒वि॒त॒: । वा॒यो॒ इति॑ । ऊ॒तये॑ । मह॑स्वन्तम् । म॒त्स॒रम् । मा॒द॒या॒थ॒: ।अ॒र्वाक् । वा॒मस्य॑ । प्र॒ऽवत॑: । नि । य॒च्छ॒त॒म् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र सुमतिं सवितर्वाय ऊतये महस्वन्तं मत्सरं मादयाथः। अर्वाग्वामस्य प्रवतो नि यच्छतं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । सुऽमतिम् । सवित: । वायो इति । ऊतये । महस्वन्तम् । मत्सरम् । मादयाथ: ।अर्वाक् । वामस्य । प्रऽवत: । नि । यच्छतम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पवन और सूर्य के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (सवितः) हे सूर्य ! (वायो) हे वायु ! (ऊतये) हमारी रक्षा के लिये (सुमतिम्) सुमति और (महस्वन्तम्) तेजवाले (मत्सरम्) हर्ष को (प्र) अच्छे प्रकार (मादयाथः) तुम दोनों परिपूर्ण करो। (अर्वाक्) हमारे सन्मुख (प्रवतः) बड़ाईवाले (वामस्य) धन का (नि) नियमपूर्वक (यच्छतम्) तुम दोनों दान करो। (तौ) सो तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥६॥

    भावार्थ

    मनुष्य सूर्य और वायु के गुणों का यथावत् प्रयोग करके बुद्धि, प्रताप और धन बढ़ा कर आनन्द भोगें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(प्र) प्रकर्षेण (सुमतिम्) शोभनां बुद्धिम् (सवितः) हे सूर्य ! (वायो) हे पवन ! (ऊतये) रक्षणाय (महस्वन्तम्) तेजोवन्तम् (मत्सरम्) कृधूमदिभ्यः कित्। उ० ३।७३। इति मदी हर्षे-सरन्। मत्सरः सोमो मन्दतेस्तृप्तिकर्मणो मत्सर इति लोभनामाभिमत्त एनेन धनं भवति-निरु० २।५। हर्षम्। सोमम्। आनन्दरसम् (मादयाथः) मद तृप्तियोगे-चुरादिः। णिच्-लेट्। युवां तर्पयतं पूरयतम् (अर्वाक्) सन्मुखम् (वामस्य) धनस्य (प्रवतः) अ० ३।१।४। प्रकर्षवतः (नि) नियमेन (यच्छतम्) दाण् दाने। पाघ्राध्मा०। पा० ७।६।८८। इति यच्छ आदेशः। दानं कुरुतम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    सुमति व सोम-संरक्षण

    पदार्थ

    १. हे (सवितः वायो) = सूर्य और वायो! आप दोनों (ऊतये) = रक्षा के लिए (समतिम्) = कल्याणी मति [बुद्धि] को प्रयच्छतम्]-दीजिए। हमारे शरीरों में (महस्वन्तम्) = दीसिवाले (मत्सरम्) = हर्ष के जनक सोम [वीर्यशक्ति] को (मादयाथ:) = पिलाकर आनन्द प्राप्त कराओ। २. इस (वामस्य) = वननीय, सुन्दर व (सेवनीय प्रवत:) = प्रकर्ष को प्राप्त करनेवाली सोम-सम्पत् को (अर्वाग्) = अस्मदभिमुख हमारे शरीरों के अन्दर ही (नियच्छतम्) = नियमन करो और इसप्रकार (तौ) = वे वायु और सूर्य (नः) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतम्) = छुड़ा दें।

    भावार्थ

    वायु और सूर्य के सम्पर्क में रहना हमारी बुद्धि को उत्तम करे तथा सोम [वीर्य] को हमारे शरीरों में ही सुरक्षित करके हमें तेजस्वी व आनन्दयुक्त बनाए। इसप्रकार हमारा जीवन निष्पाप हो।

     

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    भाषार्थ

    (सवित: वायो) हे सविता! हे वायु! (ऊतये) रक्षा के लिए (सुमतिम्) उत्तम मति (प्र "यच्छतम्") प्रदान करो, तथा (महस्वन्तम्) ज्ञानदीप्ति प्रदान करनेवाले (मत्सरम्) तृप्तिकारक सोम [का प्रदान करके] (मादयाथः) तुम हमें हर्ष प्रदान करो, अथवा तृप्त करो। (वामस्य) वननीय तथा (प्रवतः) प्रकृष्ट धन का प्रवाह (अर्वाक्) हमारी ओर (नि यच्छतम्) नितरां प्रदान करो, (तौ) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।

    टिप्पणी

    [सुमति की प्राप्ति हो जाने से पाप-कर्म नहीं होते, और पाप करने से छुटकारा हो जाता है। मत्सर है सोम, जोकि तृप्ति करता है न कि मद। यंथा "मत्सरः सोमो मदन्तेस्तृप्तिकर्मणः" (निरुक्त २।२।५), गौः पद की व्याख्या में। शुद्ध वायु के सेवन, तथा सचिता द्वारा सुप्रकाशित गृहों में निवास से मन प्रसन्न रहता और सुमति प्राप्त होती है। सोम है वनस्पति; वनस्पतियाँ वायु से भोजन, तथा सविता द्वारा प्रकाश-ताप और जल प्राप्त कर बढ़ती है।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे सवितः ! हे वायो ! आप दोनों ईश्वरीय शक्तियां (ऊतये) हमारी रक्षा के निमित्त (सु-मतिं) उत्तम बुद्धि, शक्ति को (प्रयच्छतं) उत्तम रीति से प्रदान करो। आप दोनों (महस्वन्तं) तेज से युक्त (मत्सरं) आनन्ददायक आत्मा को (मादयाथः) परि-तृप्त करते हो। (प्र-वतः) प्रकर्ष गति से जाने हारे (वामस्य) इस सुन्दर जीव को (अर्वाक्) साक्षात् सब उत्कृष्ट सुखों को (नियच्छतं) प्रदान करो। (तौ) वे दोनों आप (नः) हमें (अंहसः) पाप से (मुञ्चतम्) मुक्त करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तृतीयं मृगारसूक्तम्। ३ अतिशक्वरगर्भा जगती। ७ पथ्या बृहती। १, २, ४-६ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin and Distress

    Meaning

    Savita and Vayu, pray give us wisdom for protection and progress, pleasure, splendour and bliss for the soul, and progressive and abundant beauty, decency and grace of life. Pray save us from want, affliction and sin.

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    Translation

    O impeller sun, O elemental wind, may both of you grant a wisdom to us for our preservation. May you enable us to enjoy the bright and exhilarating (soma), the sap of a creeper available at great heights on mountains. As such, may both of you free us from sin.

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    Translation

    May the air and sun become the source of giving us good intellect for our safety, may they fill us with the pleasure full of splendor and glamour and may these two give me here plenty of pleasure full of delight. Let these twain of air and sun become the source of saving us from grief and trouble.

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    Translation

    Ye, Savitar and Vayu, two divine powers, grant us fine intellect for our protection, satisfy the exhilarating soul full of glow; grant directly to this progressive, beautiful soul, supreme joys. Deliver us, Ye twain, from sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(प्र) प्रकर्षेण (सुमतिम्) शोभनां बुद्धिम् (सवितः) हे सूर्य ! (वायो) हे पवन ! (ऊतये) रक्षणाय (महस्वन्तम्) तेजोवन्तम् (मत्सरम्) कृधूमदिभ्यः कित्। उ० ३।७३। इति मदी हर्षे-सरन्। मत्सरः सोमो मन्दतेस्तृप्तिकर्मणो मत्सर इति लोभनामाभिमत्त एनेन धनं भवति-निरु० २।५। हर्षम्। सोमम्। आनन्दरसम् (मादयाथः) मद तृप्तियोगे-चुरादिः। णिच्-लेट्। युवां तर्पयतं पूरयतम् (अर्वाक्) सन्मुखम् (वामस्य) धनस्य (प्रवतः) अ० ३।१।४। प्रकर्षवतः (नि) नियमेन (यच्छतम्) दाण् दाने। पाघ्राध्मा०। पा० ७।६।८८। इति यच्छ आदेशः। दानं कुरुतम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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