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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 25/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मृगारः देवता - वायुः, सविता छन्दः - पथ्यापङ्क्तिः सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    उ॒प श्रेष्ठा॑ न आ॒शिषो॑ दे॒वयो॒र्धाम॑न्नस्थिरन्। स्तौमि॑ दे॒वं स॑वि॒तारं॑ च वा॒युं तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । श्रेष्ठा॑: । न॒: । आ॒ऽशिष॑: । दे॒वयो॑: । धाम॑न् । अ॒स्थि॒र॒न् । स्तौमि॑ । दे॒वम् । स॒वि॒तार॑म् । च॒ । वा॒युम् । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप श्रेष्ठा न आशिषो देवयोर्धामन्नस्थिरन्। स्तौमि देवं सवितारं च वायुं तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । श्रेष्ठा: । न: । आऽशिष: । देवयो: । धामन् । अस्थिरन् । स्तौमि । देवम् । सवितारम् । च । वायुम् । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 25; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पवन और सूर्य के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवयोः) उन दोनों देवों की [=के लिये] (श्रेष्ठाः) श्रेष्ठ (आशिषः) कामनाएँ (नः) हमारे (धामन्) देह में (उप अस्थिरन्) उपस्थित हुई हैं। (देवम्) दिव्य (सवितारम्) सूर्य (च) और (वायुम्) वायु की (स्तौमि) मैं स्तुति करता हूँ। (तौ) सो तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥७॥

    भावार्थ

    मनुष्य सूर्य और वायु से गुण ग्रहण करने के लिये पूरी इच्छा अपने हृदय में स्थित करके प्रयत्नपूर्वक लाभ उठावें और सदा सुखी रहें ॥७॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ७−(उप) उपसर्गः (श्रेष्ठाः) अतिशयेन प्रशस्ताः (नः) अस्माकम् (आशिषः) आङ्पूर्वः शासु इच्छायाम्-क्विप्। आशासः क्वावुपधाया इत्वम्। वा० पा० ६।४।३४। इत इत्वम्। कामनाः (देवयोः) दानादिगुणयुक्तयोः। वायुसवित्रोः (धामन्) धामनि। स्थाने। देहे (उप अस्थिरन्) तिष्ठतेर्लुङि। अकर्मकाच्च। पा० १।३।२६। इत्यात्मनेपदम्। उपस्थिता अभवन् (स्तौमि) प्रशंसामि (देवम्) दिव्यम् (सवितारम्) सूर्यम् (च) (वायुम्) पवनम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    देवयोः धामन्

    पदार्थ

    १. (न:) = हमारी (श्रेष्ठः आशिषः) = उत्तम आकांक्षाएँ (देवयो:) = वाय व सर्यदेव के धामन तेज में (उपास्थिरन्) = हमें उपस्थित करें-स्थिर करें। हम सदा सूर्य और वायु के सम्पर्क में जीवन बिताते हुए तेजस्वी बनें और हमारी इच्छाएँ शुभ बनी रहें, अर्थात् हमें इन दोनों देवों के सम्पर्क में शरीर व मन दोनों का स्वास्थ्य प्राप्त हो। २. मैं (देवम्) = दिव्य गुणों से युक्त (सवितारम्) = सूर्य को (च) = और (वायुम) = वायु को (स्तौमि) = स्तुत करता हूँ। इनके गुणों का ध्यान करते हुए इनके सम्पर्क में रहने का प्रयत्न करता हूँ। (तौ) = वे दोनों (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतम्) = मुक्त करें।

    भावार्थ

    हमारी सूर्य व वायु के सम्पर्क में निवास की शुभ इच्छा सदा बनी रहे। इसी से हम तेजस्वी व निष्पाप जीवनवाले बन पाएँगे। अगले सूक्त में भी 'मृगार' ही ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (देवयोः) दिव्यगुणोंवाले सविता और वायु के (धामन्) अपने-अपने स्थान में (नः) हमारे (श्रेष्ठा आशिषः) श्रेष्ठ अभीष्ट (उप अस्थिरन्) स्थिररूप में उपस्थित हैं; अत: (देवम्) दिव्यगुणी (सवितारम्, वायुम्, च) सविता और वायु की (स्तौमि) मैं स्तुति करता हूँ, उनके गुणों का कथन करता हूँ। (तौ) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।

    टिप्पणी

    [आशिषः= "आङः शासु इच्छायाम्" (अदादिः), अभीष्ट; अथवा आशाएँ तथा आशीर्वाद। वायु का 'धाम' अर्थात् स्थान है, अंतरिक्ष; तथा सविता का स्थान है द्युलोक। वायु के स्थान से शुद्धवायु हमारे श्वास-प्रश्वास का हेतु है, तथा जल और मेघ का भी। सविता के स्थान से ताप और प्रकाश, और तद्-द्वारा मेघ की प्राप्ति अन्तरिक्ष में होती, और तद्-द्वारा उदक की प्राप्ति होती है। ये हमारे अभीष्ट हैं। श्रेष्ठ अभीष्टों की प्राप्ति से पापों से छुटकारा प्राप्त होता है, यतः वे श्रेष्ठ हैं, अश्रेष्ठ अभीष्टों द्वारा पाप प्राप्त होते हैं।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (नः) हमारी (श्रेष्ठाः आ-शिषः) ये उत्कृष्ट और शुभ प्रार्थनाएं, कामनाएं और (देवयोः) उक्त दोनों दिव्य, दानशील देवों के (धामन्) धारण करने हारे, परम तेजःस्वरूप परमेश्वर में ही (उप अस्थिरन्) पहुंचती हैं। (सवितारं) सविता = सब के उत्पादक स्वरूप परमात्मा और (वायुं च देवं) सबके प्रेरक देव प्रभु की ही मैं (स्तौमि) स्तुति करता हूं। (तौ) ये दोनों ही (नः) हमें (अंहसः मुञ्चतम्) पाप से मुक्त करें।

    टिप्पणी

    इस सूक्त में सूर्य और वायु के भी गुण स्पष्ट किये हैं। दृष्टान्त देकर दृष्टान्त में ईश्वर के गुण भी स्पष्ट कहे हैं। इससे सूर्य और वायु के समान, प्रजापति के अन्य युगल रूपों का भी वर्णन हुआ जानना चाहिये।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    तृतीयं मृगारसूक्तम्। ३ अतिशक्वरगर्भा जगती। ७ पथ्या बृहती। १, २, ४-६ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin and Distress

    Meaning

    May our highest ambitions and prayers reach and be established in the presence and protection of both divine Vayu and divine Savita. I invoke and adore both divine creator Savita, the inspirer, and divine Vayu, the energiser, and pray they may save us from sin and affliction, indifference and deprivation.

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    Translation

    In the domain of these two bounties of Nature, the best of the blessings have unto us. I praise the divine impeller the sun and the elemental wind. As such, may both of them free us from sin.

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    Translation

    Let our noblest prayers reach to Him who is All-containing abode of these two wonderful objects. I describe the qualities of resplendent air and sun. Let these two become the source of saving us from grief and troubles.

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    Translation

    Our noblest prayers reach unto God, the Possessor of both the divine powers. I praise God, the Creator and the Urger. May both those divine powers deliver me from sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(उप) उपसर्गः (श्रेष्ठाः) अतिशयेन प्रशस्ताः (नः) अस्माकम् (आशिषः) आङ्पूर्वः शासु इच्छायाम्-क्विप्। आशासः क्वावुपधाया इत्वम्। वा० पा० ६।४।३४। इत इत्वम्। कामनाः (देवयोः) दानादिगुणयुक्तयोः। वायुसवित्रोः (धामन्) धामनि। स्थाने। देहे (उप अस्थिरन्) तिष्ठतेर्लुङि। अकर्मकाच्च। पा० १।३।२६। इत्यात्मनेपदम्। उपस्थिता अभवन् (स्तौमि) प्रशंसामि (देवम्) दिव्यम् (सवितारम्) सूर्यम् (च) (वायुम्) पवनम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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