अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 10
ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - धाता, विधाता, सविता, आदित्यगणः, रुद्रगणः, अश्विनीकुमारः
छन्दः - विराड्जगती
सूक्तम् - विजयप्रार्थना सूक्त
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ये नः॑ स॒पत्ना॒ अप॒ ते भ॑वन्त्विन्द्रा॒ग्निभ्या॒मव॑ बाधामह एनान्। आ॑दि॒त्या रु॒द्रा उ॑परि॒स्पृशो॑ नो उ॒ग्रं चे॒त्तार॑मधिरा॒जम॑क्रत ॥
स्वर सहित पद पाठये । न॒: । स॒ऽपत्ना॑: । अप॑। ते । भ॒व॒न्तु॒ । इ॒न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म् । अव॑ । बा॒धा॒म॒हे॒ । ए॒ना॒न् । आ॒दि॒त्या: । रु॒द्रा: । उ॒प॒रि॒ऽस्पृश॑: । न॒: । उ॒ग्रम् । चे॒त्तार॑म् । अ॒धि॒ऽरा॒जम् । अ॒क्र॒त॒ ॥३.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
ये नः सपत्ना अप ते भवन्त्विन्द्राग्निभ्यामव बाधामह एनान्। आदित्या रुद्रा उपरिस्पृशो नो उग्रं चेत्तारमधिराजमक्रत ॥
स्वर रहित पद पाठये । न: । सऽपत्ना: । अप। ते । भवन्तु । इन्द्राग्निऽभ्याम् । अव । बाधामहे । एनान् । आदित्या: । रुद्रा: । उपरिऽस्पृश: । न: । उग्रम् । चेत्तारम् । अधिऽराजम् । अक्रत ॥३.१०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रक्षा के उपाय का उपदेश।
पदार्थ
(ये) जो (नः) हमारे (सपत्नाः) शत्रु हैं (ते) वे (अपभवन्तु) दूर हो जावें, (इन्द्राग्निभ्याम्) वायु और अग्नि [प्राण और पराक्रम] द्वारा (एनान्) इनको (अव बाधामहे) हम हटाते हैं (आदित्याः) प्रकाशमान, (रुद्राः) दुःखनाशक, (उपरिस्पृशः) उच्च पद धारण करनेवाले पुरुषों ने (चेत्तारम्) सर्वज्ञ, (उग्रम्) तेजस्वी परमात्मा को (नः) हमारा [अधिराजम्] राजाधिराज (अक्रत) बनाया है ॥१०॥
भावार्थ
जिस परमात्मा को ऋषि मुनि महात्माओं ने सब संसार का स्वामी साक्षात् किया है, उसी परमात्मा के आश्रय से हम अपने शत्रुओं को जीतें ॥१०॥
टिप्पणी
१०−(ये) (नः) अस्माकम् (सपत्नाः) अ० १।९।२। सहपतनशीलाः। शत्रवः (ते) शत्रवः (अप भवन्तु) अपगताः प्रच्युताः सन्तु (इन्द्राग्नीभ्याम्) वाय्वग्निभ्यां प्राणपराक्रमाभ्यां सह (अवबाधामहे) अव रुन्ध्मः (एनान्) शत्रून् (आदित्याः) म० ९। प्रकाशमानाः (रुद्राः) म० ९। दुःखनाशकाः पुरुषाः (उपरिस्पृशः) उन्नतपदस्य स्प्रष्टारो धर्तारः (नः) अस्माकम् (उग्रम्) तेजस्विनं परमेश्वरम् (चेत्तारम्) इडभावः। चेतितारं सर्वस्य ज्ञातारम् (अधिराजम्) अधीश्वरम् (अक्रत) लुङि छान्दसं रूपम्। अकुर्वत। कृतवन्तः ॥
विषय
आदित्यः, रुद्रः, उपरिस्पृश्
पदार्थ
१. (ये) = जो (न:) = हमारे (सपत्ना:) = काम-क्रोध, लोभ आदि [स्वत्व पर समान अधिकार जमानेवाले] शत्रु हैं (ते) = वे (अप भवन्तु) = हमसे दूर रहें। (इन्द्राग्रिभ्याम्) = [इन्द्र-बल, अग्नि-प्रकाश] बल व प्रकाश के हेतु से (एनान्) = इन शत्रुओं को (अप बाधामहे) = अपने से दूर ही करते हैं। 'काम' को दूर करके ही हम शरीर से सबल हो पाएँगे। क्रोध व लोभ का विनाश ही हमारे ज्ञान के प्रकाश को दीप्त करेगा। (न:) = हममें जो भी (आदित्या:) = सूर्य के समान ज्ञान के प्रकाशवाले, (रुद्राः) = रोगों को दूर भगानेवाले व (उपरिस्पृश:) = संसार के विषयों के स्पर्श से ऊपर उठनेवाले होते हैं-मात्रा-स्पों में आसक्त नहीं होते वे (उग्रम्) = उस तेजस्वी, (चेत्तारम्) = सर्वज्ञ व उपासकों को चेतानेवाले प्रभु को (अधि राजम् अक्रत) = अधिराज बनाते हैं, प्रभु को ही अपना स्वामी जानते हैं। इसप्रकार ये पवित्र और निर्भीक जीवनवाले बनते हैं। वस्तुत: प्रभु को अधिराज बनाकर ही वे आदित्य, रुद्र व उपरिस्पृश' बन पाते हैं।
भावार्थ
काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं को दूर भगाकर हम बल व प्रकाश का सम्पादन करें। ज्ञानसूर्य को उदित करके तथा रोगों को दूर भगाकर हम विषयों के स्पर्श से ऊपर उठे और प्रभु को ही अपना अधिराज जानें।
भाषार्थ
(ये) जो (नः) हमारे (सपत्ना: ) शत्रु हैं (ते ) वे (अप भवन्तु) दूर हो जाएँ, हट जाएं, (इन्द्राग्निभ्याम्) सम्राट और अग्रणी प्रधानमन्त्री द्वारा (एनान् अवबाधामहे) इनके प्रति हम बाधाएँ उपस्थित करते हैं। (आदित्याः रुद्राः) आदित्य और रुद्र कोटि के विद्वान्, ( उपरिस्पृशः) जोकि साम्राज्य जीवन में सर्वोपरि स्थान को स्पर्श किये हुए हैं, उन्होंने (नः) हमारे ( उग्रम्, चेत्तारम् ) उग्र और सम्यक् ज्ञानी इन्द्र को (अधिराजम्) राजाधिराज (अक्रत्) कर दिया है। "अधिराज (अथर्व० ६।९८।१-३)"।
टिप्पणी
[आदित्य और रुद्र के साथ वसु कोटि के विद्वान् भी अभिप्रेत हैं। ये त्रिविध प्रकार के विद्वान् हैं जिन्होंने विजयी सम्राट को राजाधिराज कर दिया है।]
विषय
बल और विजय की प्रार्थना।
भावार्थ
(ये) जो (नः) हमारे (स-पत्नाः) स्वत्व पर समान अधिकार जमाने वाले भीतरी और बाहरी शत्रु हैं (ते अप भवन्तु) वे दूर हों। (एनान्) इन सबको (इन्द्राग्निभ्याम्) इन्द्र और अग्नि से, इन्द्र=विद्युत् या सूर्य और अग्नि=आग और ज्ञान, या राजा और सेनापति द्वारा (अव बाधामहे) विनष्ट करते हैं। (उपरि-स्पृशः) ऊर्ध्व देश को स्पर्श करने वाले (आदित्याः) सूर्य की किरण और (रुद्राः) वायुएं (चेत्तारं) समस्त संसार को चेतना देने हारे उस उग्रं) बलवान् प्रभु को (अधि-राजम्) सबका स्वामी (अक्रन्) बना देते हैं। राष्ट्रपक्ष में—(आदित्याः) सूर्य के समान ज्ञानी पुरुष और (रुद्राः) दुष्टों को रुलाने वाले वीर पुरुष संब मिलकर (चेत्तारम्) सबको चेताने वाले (उग्रं) बलवान् पुरुष को (अधिराजम् अक्रत) अपना स्वामी, राजा बनाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहद्दिवो अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १, ३-९ त्रिष्टुप्। १० विराड् जगती। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Strength and Victory
Meaning
Whoever be our adversaries, opponents and enemies, let them all be out. We keep them off by the power of Indra and the light and leadership of Agni, omnipotent and omniscient, both our powers of defence and advancement. May Adityas, power of light refulgent as sun, Rudras, powers of love, justice and relentless law, all rising and touching the heights of possibility and divinity, raise us to the state of the power, passion and enlightenment of self-rule, social governanace and superhuman knowledge and wisdom, vision of divinity ultimately.
Subject
Dravinoda
Translation
May those who are our rivals, be away from us. With the help of the resplendent king and the adorable army chief, we drive them off. Old and adult sages, who are high above us, have made our over-lord formidable and conscientious. (Also Rg. X.128.9)
Translation
Let those people who are our enemies be away from us. May we drive them away with the power of electricity and fire. The sun-rays and vital forces have made ns mighty and intelligent God the paramount Lord.
Translation
Let those who are our foemen stay afar from us: with Indra and with Agni we will drive them off. The dignified, brilliant, benevolent persons have made the Omniscient, Powerful God as our sovereign Lord.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१०−(ये) (नः) अस्माकम् (सपत्नाः) अ० १।९।२। सहपतनशीलाः। शत्रवः (ते) शत्रवः (अप भवन्तु) अपगताः प्रच्युताः सन्तु (इन्द्राग्नीभ्याम्) वाय्वग्निभ्यां प्राणपराक्रमाभ्यां सह (अवबाधामहे) अव रुन्ध्मः (एनान्) शत्रून् (आदित्याः) म० ९। प्रकाशमानाः (रुद्राः) म० ९। दुःखनाशकाः पुरुषाः (उपरिस्पृशः) उन्नतपदस्य स्प्रष्टारो धर्तारः (नः) अस्माकम् (उग्रम्) तेजस्विनं परमेश्वरम् (चेत्तारम्) इडभावः। चेतितारं सर्वस्य ज्ञातारम् (अधिराजम्) अधीश्वरम् (अक्रत) लुङि छान्दसं रूपम्। अकुर्वत। कृतवन्तः ॥
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