अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 6
ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - वैश्वदेवी
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विजयप्रार्थना सूक्त
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दैवीः॑ षडुर्वीरु॒रु नः॑ कृणोत॒ विश्वे॑ देवास इ॒ह मा॑दयध्वम्। मा नो॑ विददभि॒भा मो अश॑स्ति॒र्मा नो॑ विदद्वृजि॒ना द्वेष्या॒ या ॥
स्वर सहित पद पाठदैवी॑: । ष॒ट् । उ॒र्वी॒: । उ॒रु । न॒: । कृ॒णो॒त॒ । विश्वे॑ । दे॒वा॒स॒: । इह । मा॒द॒य॒ध्व॒म् । मा । न॒:। वि॒द॒त् ।अ॒भि॒ऽभा: । मो इति॑ । अश॑स्ति: । मा । न॒: । वि॒द॒त् । वृ॒जि॒ना । द्वेष्या॑ । या ॥३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
दैवीः षडुर्वीरुरु नः कृणोत विश्वे देवास इह मादयध्वम्। मा नो विददभिभा मो अशस्तिर्मा नो विदद्वृजिना द्वेष्या या ॥
स्वर रहित पद पाठदैवी: । षट् । उर्वी: । उरु । न: । कृणोत । विश्वे । देवास: । इह । मादयध्वम् । मा । न:। विदत् ।अभिऽभा: । मो इति । अशस्ति: । मा । न: । विदत् । वृजिना । द्वेष्या । या ॥३.६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रक्षा के उपाय का उपदेश।
पदार्थ
(दैवीः) हे दिव्य गुणवाली (षट्) छह [पूर्वादि चार और ऊँची-नीची दो] (उर्वीः) फैली हुई दिशाओ ! (नः) हमारे लिये (उरु) फैला हुआ स्थान (कृणोत) करो। (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् लोगो ! (इह) इस विषय में [हमें] (मादयध्वम्) आनन्दित करो। (अभिभाः) सन्मुख चमकती हुयी, आपत्ति (नः) हम पर (मा विदत्) न आ पड़े, और (मो=मा उ) न कभी (अशस्तिः) अपकीर्त्ति, और (या) जो (द्वेष्या) द्वेष योग्य (वृजिना) वर्जनीय पाप बुद्धि है, [वह भी] (नः) हम पर (मा विदत्) न आपड़े ॥६॥
भावार्थ
मनुष्य सब दिशाओं में शान्ति रक्खे, जिससे विद्वान् लोग उपकार करते रहें और सब प्रकार की विपत्ति, अपकीर्ति और कुमति से दूर रहें ॥६॥ इस मन्त्र का उत्तरार्ध अ० १।२०।१। में आया है ॥
टिप्पणी
६−(दैवीः) दैव्यः। दिव्यगुणोपेताः (षट्) पूर्वादिचतस्र ऊर्ध्वाधो दिशौ च (उर्वीः) उर्व्यः। विस्तीर्णा दिशः (उरु) विस्तीर्णं स्थानम् (नः) अस्मभ्यम् (कृणोत) कृवि हिंसाकरणयोः−लोटि छान्दसं रूपम्। कृणुत। कुरुत (विश्वे) सर्वे (देवासः) देवाः। विद्वांसः (इह) अस्मिन् विषये (मादयध्वम्) अस्मान् हर्षयत। अन्यद् व्याख्यातम्−अ० १।२०।१। इह तु शब्दार्थो दीयते। (नः) (अस्मान्) (मा विदत्) मा प्राप्नोतु (अभिभाः) आपत्तिः (मो) मा−उ। मैव (अशस्तिः) अपकीर्तिः (वृजिना) वर्जनीया पापबुद्धिः (द्वेष्या) द्वेषणीया (या) ॥
विषय
'अभिभा, अशस्ति, वृजिना' से दूर
पदार्थ
१. (दैवी:) = उस महान् देव प्रभु की बनाई हुई अतएव दिव्य गुणोंवाली (षट् उर्विः) = छह दिशाओ! [प्राची, दक्षिण, प्रतीची, उदीची, धुवा व ऊर्ध्वा] (न:) = हमारे लिए (उरु कृणोत) = विशाल निवास स्थान प्राप्त कराओ। हम सदा खुले स्थानों में रहनेवाले बनें । (विश्वेदेवासः) = सूर्यादि सब देवो तथा दिव्य वृत्तियो। (आप इह) = इस जीवन में हमें (मादयध्वम्) = आनन्दित करो। हम सूर्यादि के सम्पर्क में हों तथा सदा उत्तम वृत्तियों को अपनाते हुए प्रसन्न जीवनवाले हों। २. (न:) = हमें (अभिभा:) = सम्मुख चमकती हुई आपत्ति (मा विदत्) = न प्राप्त हो। यह हमारे उत्साह को नष्ट न कर दे, हम साहसपूर्वक इसका मुकाबला करें। (मा उ अशस्ति) = हमें मत ही अपकीर्ति प्राप्त हो। हम कायर बनकर अपयश के पात्र न बनें। (न:) = हमें (या) = जो (द्वेष्या) = न प्रीति करने योग्य (वृजिना) = वर्जनीय [कुटिल] पाप-बुद्धि है, वह (मा विदत्) = मत प्राप्त हो। हम कभी कुटिल बुद्धि के शिकार न हो जाएँ।
भावार्थ
हम खुले स्थानों में रहें, शुभ वृत्तियोंवाले बनें। आपत्ति में न घबराएँ, साहसपूर्वक उसका प्रतीकार करते हुए यशस्वी हों। कुटिल पाप-बुद्धि से कभी प्रीति न करें।
भाषार्थ
हे (दैवी:) दिव्य (षट् ) छह ( उर्वी: ) विस्तृत दिशाओ ! (न:) हमारे लिए (उरु) विस्तृत प्रदेश (कृणोत) करो, और (विश्वेदेवाः) हे साम्राज्य के सब दिव्य अधिकारियो ! (इह) इस साम्राज्य में (मादयध्वम्), आनन्दित रहो । ( नः) हमें (अभिभा:) पराभव (मा विदत्) न प्राप्त हो, (मा) न (नः) हमें (अशस्तिः ) अप्रशंसा, ( निन्दा विदत् ) प्राप्त हो, ( मा ) और न (विदत्) प्राप्त हो (वृजिना) वर्जनीया पापिन शत्रुसेना ( या ) जोकि (द्वेष्या) द्वेष करनेवाले शत्रु की है ।
टिप्पणी
[सैन्य प्रशिक्षण के लिए विस्तृत प्रदेश चाहिए, इसलिए सोम राजा ने साम्राज्य से विस्तृत प्रदेश की मांग की है। सैन्य प्रशिक्षण के रहते शत्रु सेना आक्रमण द्वारा न हमारा पराभव कर सकती है, न हमें पराभव-जन्य निन्दा प्राप्त होती और न शत्रुसेना हमारे राष्ट्र में निज पदार्पण के लिए साहस ही कर सकती है ।]
विषय
बल और विजय की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (षड् उर्वीः) छ: विशाल (दैवीः) देवियो ! (नः) हमारे लिये (उरु कृणोत) विशाल प्रदेश प्रदान करो और विशाल ज्ञान और अन्न दो, और हे (विश्वे देवासः) समस्त विद्वान् पुरुषो ! आप लोग (इह) यहां, मेरे राज्य में (मादयध्वम्) खूब आनन्द से निवास करो। (नः) हमें (अभि-भाः) हमारे साहसों का नाश करने वाली निराशा (मा विदद्) प्राप्त न हो और (अशस्तिः मा) अपकीर्ति भी न प्राप्त हो। और (या) जो (द्वेष्या) द्वेष करने वाली या द्वेष करने योग्य अप्रीति का पात्र, (वृजिना) परित्याग करने योग्य पाप बुद्धि है वह भी (मा विदद्) प्राप्त न हो। अध्यात्म में—प्राण आदि पांच ज्ञान-वृत्तियां और छठी मनोवृत्ति। आधिदैविक में छः दिशाएं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहद्दिवो अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १, ३-९ त्रिष्टुप्। १० विराड् जगती। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Strength and Victory
Meaning
O divine six-dimentional spaces of expansive nature and time, help us grow all round without strain in person and humanity. O divinities of life of all the world, rejoice and be here with us to bless us with the glory and ecstasy of living. Let no depression, no malignity or imprecation, no alienation, no jealousy or hostility, ever touch and pollute us in body, mind and soul against nature and society.
Subject
Viśvedevah
Translation
O divine six extensive quarters, may you make wide space for us. O all the enlightened ones, revel here. May not any defeat come to us, nor ill-fame; may not the hateful sin come to us. (Also Rg. X.128.5)
Translation
Let these six splendid expansive directions give us to great freedom and all the learned persons make us happy in this life. Let not calamity or curses overtake us and let not the evil and avertable deeds overpower us.
Translation
Ye six divine Expanses, give us freedom. Here, ye learned persons, remain happy. Let not calamity or infamy overtake us, nor deeds of sin that merit hatred.
Footnote
Six expanses: North, East, South, West, Nadir and Zenith. 'Here’ means in my kingdom, my rule or administration.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
६−(दैवीः) दैव्यः। दिव्यगुणोपेताः (षट्) पूर्वादिचतस्र ऊर्ध्वाधो दिशौ च (उर्वीः) उर्व्यः। विस्तीर्णा दिशः (उरु) विस्तीर्णं स्थानम् (नः) अस्मभ्यम् (कृणोत) कृवि हिंसाकरणयोः−लोटि छान्दसं रूपम्। कृणुत। कुरुत (विश्वे) सर्वे (देवासः) देवाः। विद्वांसः (इह) अस्मिन् विषये (मादयध्वम्) अस्मान् हर्षयत। अन्यद् व्याख्यातम्−अ० १।२०।१। इह तु शब्दार्थो दीयते। (नः) (अस्मान्) (मा विदत्) मा प्राप्नोतु (अभिभाः) आपत्तिः (मो) मा−उ। मैव (अशस्तिः) अपकीर्तिः (वृजिना) वर्जनीया पापबुद्धिः (द्वेष्या) द्वेषणीया (या) ॥
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