अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 3/ मन्त्र 8
ऋषिः - बृहद्दिवोऽथर्वा
देवता - सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विजयप्रार्थना सूक्त
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उ॑रु॒व्यचा॑ नो महि॒षः शर्म॑ यच्छत्व॒स्मिन्हवे॑ पुरुहू॒तः पु॑रु॒क्षु। स नः॑ प्र॒जायै॑ हर्यश्व मृ॒डेन्द्र॒ मा नो॑ रीरिषो॒ मा परा॑ दाः ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒रु॒ऽव्यचा॑: । न॒: । म॒हि॒ष: । शर्म॑ । य॒च्छ॒तु॒ । अ॒स्मिन् । हवे॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त: पु॒रु॒ऽक्षु । स: ।न॒:। प्र॒ऽजायै॑ । ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒ । मृ॒ड॒ । इन्द्र॑ । मा । न॒: । रि॒रि॒ष॒:। मा । परा॑ । दा॒: ॥३.८॥
स्वर रहित मन्त्र
उरुव्यचा नो महिषः शर्म यच्छत्वस्मिन्हवे पुरुहूतः पुरुक्षु। स नः प्रजायै हर्यश्व मृडेन्द्र मा नो रीरिषो मा परा दाः ॥
स्वर रहित पद पाठउरुऽव्यचा: । न: । महिष: । शर्म । यच्छतु । अस्मिन् । हवे । पुरुऽहूत: पुरुऽक्षु । स: ।न:। प्रऽजायै । हरिऽअश्व । मृड । इन्द्र । मा । न: । रिरिष:। मा । परा । दा: ॥३.८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रक्षा के उपाय का उपदेश।
पदार्थ
(उरुव्यचाः) बड़ी व्याप्तिवाला, (महिषः) पूज्य, (पुरुहूतः) अत्यन्त करके पुकारा गया परमेश्वर (अस्मिन् हवे) इस आवाहन में (नः) हमें (पुरुक्षु) बहुत अन्नों से युक्त (शर्म) घर (यच्छतु) देवे। (सः) सो तू (हर्यश्व) हे आकर्षण विकर्षण से व्यापक (इन्द्र) परमेश्वर ! (नः) हमारी (प्रजायै) प्रजा के लिये (मृड) सुखी हो, (नः) हमें (मा रिरिषः) मत दुःख दे और (मा परा दाः) मत त्याग कर ॥८॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर की उपासना करके प्रयत्नपूर्वक अन्न आदि पदार्थों का संग्रह करें, जिससे प्रजा लोग सदा प्रसन्न रहें और कभी दुःख न पावें ॥८॥
टिप्पणी
८−(उरुव्यचाः) अञ्चु गतौ−असुन्। विस्तीर्णव्यापनः (नः) अस्मभ्यम् (महिषः) अ० २।३५।४। पूजनीयः। महान् (शर्म) गृहम्−निघ० ३।४। (यच्छतु) ददातु (अस्मिन्) (हवे) आह्वाने (पुरुहूतः) बहुप्रकारेणाहूतः (पुरुक्षु) आङ्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च। उ० १।३३। इति टुक्षु शब्दे, यद्वा क्षि निवासगत्योः−कु, स च डित्। क्षु=अन्नम्−निघ० २।७। बह्वन्नयुक्तम् (सः) सः त्वम् (नः) अस्माकम् (प्रजायै) प्रजाहिताय (हर्यश्व) हृपिषिरुहि० उ० ४।११९। इति हृञ् हरणे−इन्। हरणं प्रापणं स्वीकारः स्तेयं नाशनं च। अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। इति अशू व्याप्तौ−क्वन्। हरी इन्द्रस्य निघ० २।१५। [उपयोजनानि साहचर्यज्ञानस्य−निरु० २।२८] हे हरिभ्यामाकर्षणविकर्षणाभ्यां व्यापनशील (मृड) सुखी भव (इन्द्र) परमेश्वर (नः) अस्मान् (मा रीरिषः) रिष हिंसायां लुङि छान्दसं रूपम्। मा हिंसीः (मा परा दाः) डुदाञ् दाने−लुङ्। परादानं परित्यागः। मा परित्याक्षीः ॥
विषय
'पुरुक्षु'शर्म
पदार्थ
१. (उरुव्यचा:) = वह महान् विस्तारवाला-सर्वव्यापक (महिष:) = पूजनीय (पुरुहूत:) = बहुत पुकारा जानेवाला अथवा पालक व पूरक है पुकार जिसकी, ऐसा वह प्रभु (न:) = हमारे लिए (अस्मिन् हवे) = इस पुकार व आराधना के होने पर (पुरुक्षु) = अत्यन्त पालक व पूरक अन्नों से युक्त (शर्म) = गृह (यच्छतु) = दे। उस सर्वव्यापक पूजनीय प्रभु के अनुग्रह से हमारे घर पालक व पूरक अन्नों से युक्त हों। इनमें अन्न की कभी कमी न हो। २. हे (हर्यश्व) = तेजस्वी व लक्ष्यस्थान पर प्राप्त करानेवाले प्रभो! (सः) = वे आप (न:) = हमारे (प्रजायै) = सन्तान के लिए (मृड) = सुख प्राप्त कराइए। हे इन्द्र-सर्वेश्वर प्रभो! (न:) = हमें (मा रीरिषः) = मत हिंसित कीजिए. (मा परा दा:) = मत छोड़ दीजिए। हम सदैव आपके अनुग्रह के पात्र हों और आपके अनुग्रह से वासनारूप शत्रुओं से कभी हिसित न हों।
भावार्थ
वे सर्वव्यापक पूजनीय प्रभु हमें पालक व पूरक अनों से भरपूर घर दें। हमारे सन्तान भी प्रभु के अनुग्राह्य हों। हम प्रभु से कभी छोड़ न दिये जाएँ और इसप्रकार हम कभी वासनाओं के शिकार न बनें।
भाषार्थ
(उरुव्यचाः) महाविस्तृत साम्राज्यवाला, ( महिषः ) महान् ( न ) हमें (शर्म) सुख या आश्रय (यच्छतु) प्रदान करे, वह जोकि (अस्मिन् हवे) हमारे इस आह्वान पर, (पुरुहूतः) बहुसंख्यक प्रजाजनों द्वारा आहूत हुआ है, (पुरुक्षु) और जो साम्राज्य की प्रभूत अन्न-सम्पत्ति का स्वामी है। (हर्यश्व) हे हरि ! अर्थात् शीघ्रगामी अश्वोंवाले ! (इन्द्र) सम्राट् ! (स:) वह तु (नः प्रजायै) हम प्रजाओं के लिए (मृड) सुख उत्पन्न कर, (नः) हमें (मा) न ( रीरिषः) दुःखी कर, अर्थात् ( न:) हमारा ( मा ) न ( परा दा:). शत्रुओं के प्रति प्रदान कर, अथवा हमारा परित्याग न कर ।
टिप्पणी
[व्यचः=विस्तार । शर्म सुखनाम ; गृहनाम (निघं० ३।६; ३।४)। क्षु अन्ननाम (निघं० २।७) । रीरिषः =मानसिक हिंसा अर्थात् दुःख। प्रतीत होता है कि सोम-राजा के शासनकाल में, सम्राट् राज्य करने से विरक्त हो गया है, और प्रजाजन पुनः साम्राज्य के लिए उसका आह्वान करना चाहते हैं।]
विषय
बल और विजय की प्रार्थना।
भावार्थ
(उरुव्यचाः) इस विशाल मूल प्रकृति में या विशाल ब्रह्माण्ड में व्यापक, प्रजा में व्यवस्थारूप से व्यापक (महिषः) महान् परमात्मा, राजा (नः) हमें (शर्म) शरण और सुख (यच्छतु) दे। (पुरु-हूतः) समस्त प्रजाओं द्वारा स्मरण किया गया, परमात्मा वा राजा (अस्मिन्) इस (हवे) यज्ञ में हमें (पुरु-क्षु) बहुत अन्न भी दे। हे (हरि-अश्व) तीव्र व्यापनशील शक्तियों से युक्त अथवा तीव्राश्वों से युक्त राजा के समान परमात्मन् ! (नः प्र-जायै) हमारी प्रजा के लिये (मृड) सुख दे, (नः) हमें (मा रीरिषः) मत नष्ट कर और (मा परादाः) हमें कभी मत त्याग। राजा, ईश्वर दोनों पक्ष में स्पष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहद्दिवो अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। १, ३-९ त्रिष्टुप्। १० विराड् जगती। एकादशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Strength and Victory
Meaning
May the great lord of glory and Infinity, omnificent and universally invoked, give us peace and prosperity in a happy home. O lord omnipotent, Indra, controller of the dynamic forces of life and nature, be kind and gracious to us, for our people, pray never hurt us, never alienate us, never forsake us to the other forces of evil and negativity.
Subject
Indrah
Translation
May the great Lord having immense power, invoked respecfully at the sacrifice, grant us happiness with plenty of food. O Lord of swift steeds, as such may you be gracious to our progeny. O resplendent Lord, may you not harass us. May you not leave us at the mercy of others.(Also Rg. X.128.8)
Translation
May the All-pervading adorable and all worshippable by Divinity grant us the shelter full of plentiful grain in the battlefield of life. May that Almighty God give pleasure to our children and may he harm us not and give us not to others for exploitation.
Translation
O All-pervading, Mighty God grant us happiness. O Much-Invoked God, grant us foodstuffs in this sacrifice (Yajna). O God, powerful like a king equipped with fleeting steeds, bless our children, harm us not, abandon us not!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
८−(उरुव्यचाः) अञ्चु गतौ−असुन्। विस्तीर्णव्यापनः (नः) अस्मभ्यम् (महिषः) अ० २।३५।४। पूजनीयः। महान् (शर्म) गृहम्−निघ० ३।४। (यच्छतु) ददातु (अस्मिन्) (हवे) आह्वाने (पुरुहूतः) बहुप्रकारेणाहूतः (पुरुक्षु) आङ्परयोः खनिशॄभ्यां डिच्च। उ० १।३३। इति टुक्षु शब्दे, यद्वा क्षि निवासगत्योः−कु, स च डित्। क्षु=अन्नम्−निघ० २।७। बह्वन्नयुक्तम् (सः) सः त्वम् (नः) अस्माकम् (प्रजायै) प्रजाहिताय (हर्यश्व) हृपिषिरुहि० उ० ४।११९। इति हृञ् हरणे−इन्। हरणं प्रापणं स्वीकारः स्तेयं नाशनं च। अशूप्रुषिलटि०। उ० १।१५१। इति अशू व्याप्तौ−क्वन्। हरी इन्द्रस्य निघ० २।१५। [उपयोजनानि साहचर्यज्ञानस्य−निरु० २।२८] हे हरिभ्यामाकर्षणविकर्षणाभ्यां व्यापनशील (मृड) सुखी भव (इन्द्र) परमेश्वर (नः) अस्मान् (मा रीरिषः) रिष हिंसायां लुङि छान्दसं रूपम्। मा हिंसीः (मा परा दाः) डुदाञ् दाने−लुङ्। परादानं परित्यागः। मा परित्याक्षीः ॥
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