अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 97/ मन्त्र 2
समि॑न्द्र नो॒ मन॑सा नेष॒ गोभिः॒ सं सू॒रिभि॑र्हरिव॒न्त्सं स्व॒स्त्या। सं ब्रह्म॑णा दे॒वहि॑तं॒ यदस्ति॒ सं दे॒वानां॑ सुम॒तौ य॒ज्ञिया॑नाम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । इ॒न्द्र॒ । न॒: । मन॑सा । ने॒ष॒ । गोभि॑: । सम् । सू॒रिऽभि॑: । ह॒रि॒ऽव॒न् । सम् । स्व॒स्त्या । सम् । ब्रह्म॑णा । दे॒वऽहि॑तम् । यत् । अस्ति॑ । सम् । दे॒वाना॑म् । सु॒ऽम॒तौ । य॒ज्ञिया॑नाम् ॥१०२.२॥
स्वर रहित मन्त्र
समिन्द्र नो मनसा नेष गोभिः सं सूरिभिर्हरिवन्त्सं स्वस्त्या। सं ब्रह्मणा देवहितं यदस्ति सं देवानां सुमतौ यज्ञियानाम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । इन्द्र । न: । मनसा । नेष । गोभि: । सम् । सूरिऽभि: । हरिऽवन् । सम् । स्वस्त्या । सम् । ब्रह्मणा । देवऽहितम् । यत् । अस्ति । सम् । देवानाम् । सुऽमतौ । यज्ञियानाम् ॥१०२.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्र) हे बड़े ऐश्वर्यवाले राजन् ! (नः) हमें (मनसा) विज्ञान के साथ और (गोभिः) इन्द्रियों वा वाणियों के साथ (सम्) ठीक-ठीक, (हरिवन्) हे श्रेष्ठ मनुष्योंवाले ! (सूरिभिः) विद्वानों के साथ (सम्) ठीक-ठीक, (स्वस्त्या) अच्छी सत्ता [क्षेम कुशल] के साथ (सम्) ठीक-ठीक (यत्) जो [ब्रह्म] (देवहितम्) विद्वानों का हितकारक (अस्ति) है, [उस] (ब्रह्मणा) ब्रह्म, वेद, धन, वा अन्न के साथ (सम्) ठीक-ठीक, (यज्ञियानाम्) पूजा योग्य (देवानाम्) विद्वानों की (सुमतौ) सुमति में (सम्) ठीक-ठीक (नेष) तू ले चल ॥२॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों के सत्सङ्ग से मनस्वी, वाग्मी, और कार्यकुशल होकर सबको उन्नति की ओर प्रवृत्त करें ॥२॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−५।४२।४। और यजु० ८।१५ ॥
टिप्पणी
२−(सम्) सम्यक्। यथावत् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (नः) अस्मान् (मनसा) विज्ञानेन (नेष) णीञ् प्रापणे-लोटि शप्। सिब्बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप्। अतो हेः। पा० ६।४।१०५। इति हेर्लोपः। नय। प्रापय (गोभिः) इन्द्रियैर्वाग्भिर्वा (सूरिभिः) अ० २।११।४। विद्वद्भिः (हरिवन्) हरयो मनुष्याः-निघ० २।३। प्रशस्तमनुष्ययुक्त (सम्) (स्वस्त्या) अ० १।३०।२। सुसत्तया। क्षेमेण (सम्) (ब्रह्मणा) वेदेन धनेनान्नेन वा (देवहितम्) विद्वद्भ्यो हितम् (यत्) ब्रह्म (अस्ति) (सम्) (देवानाम्) विदुषाम् (सुमतौ) श्रेष्ठायां बुद्धौ (यज्ञियानाम्) पूजार्हाणाम् ॥
विषय
मनसा गोभिः [सं नेष]
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (न:) = हमें (मनसा सं नेष) = मन के साथ संयुक्त कीजिए, हमें मनस्वी बनाइए। (गोभिः) = ज्ञान-प्राप्ति की साधनभूत इन्द्रियों के साथ सं[नेष] संयक्त कीजिए। हे (हरिवन्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले प्रभो! (सूरिभिः स्वस्त्या सम्) [नेष] = विद्वानों के साथ और उनके द्वारा कल्याण के साथ संयुक्त कीजिए। २. हे प्रभो! हमें उस (ब्राह्मणा) = ज्ञान के साथ (सं) [नेष] = संयुक्त कीजिए, (यत्) = जोकि (देवहितं अस्ति) = विद्वानों के लिए हितकर है, अथवा सृष्टि के प्रारम्भ में 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' आदि देवों के हृदय में स्थापित हुआ है। हमें आप (यज्ञियानाम्) = यज्ञशील (देवानाम्) = देवों की (सुमती) = सुमति में (सं) [नेष] = प्राप्त कराइए।
भावार्थ
प्रभुकृपा से हम 'उत्तम मन, ज्ञानेन्द्रियों, विद्वानों, कल्याण, वेदज्ञान व देव-सुमति' को प्राप्त करें।
भाषार्थ
(इन्द्र) हे साम्राज्याधिपति सम्राट् ! (नः) हम आश्रमवासियों को (मनसा) ज्ञान तथा अवबोधन, और (गोभिः) गौओं के साथ (संनेष) सम्बद्ध कर (हरिवन्) हे अश्वारोहिन ! (सूरिभिः) विद्वानों के साथ (सम्) हमें सम्बद्ध कर (स्वस्त्या) उत्तम स्थिति के साथ (सन्) हमें सम्बद्ध कर। (ब्रह्मणा) वेदविद्या के साथ (सम्) हमें सम्बद्ध कर (यद्) जो (देवहितम् अस्ति) देवहितकर वस्तु है उस के साथ (सम) हमें सम्बद्ध कर, (यज्ञियानाम्) सोमयज्ञ के योग्य (देवानाम्) विद्वानों और दिव्यगुणी सज्जनों की (सुमतौ) सुमति में [सं नेष] हमारा नयन कर।
टिप्पणी
[मन्त्र (१) में अग्नि द्वारा साम्राज्य के प्रधानमन्त्री का वर्णन हुआ है। मन्त्र (२) में सम्राट् का वर्णन हुआ है। आश्रमवासियों ने निज आवश्यकताओं की मांग सम्राट से की है। आश्रम के गुरुओं तथा कर्मचारियों के खान-पान के लिये “गोभिः" द्वारा भी गौ आदि की व्यवस्था मांगी है। मनसा= मन ज्ञाने (दिवादिः), तथा मनु अववोधने (तनादिः) द्वारा आश्रम में ज्ञान-अवबोधन को प्रधानता को सूचित किया है। मन है ज्ञान-अवबोधन का साधन और ज्ञान-अवबोधन है मन द्वारा साध्य। साध्य में साधन का उपचार हुआ है। "यज्ञियानाम्, देवानाम्" द्वारा आश्रमवासियों ने आश्रम के संचालन में इन की सुमति अर्थात् शुभ परामर्श की अभ्यर्थना प्रदर्शित की है।]
विषय
ऋत्विजों का वरण।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! परमेश्वर ! (नः) हमें (मनसा) मननशील चित्त और (गोभिः) इन्द्रियों सहित या वेदवाणियों द्वारा (सं नेष) समान रूप से उत्तम मार्ग में ले चल। हे इन्द्र ! राजन् ! हमें (सूरिभिः) ज्ञानी विद्वानों के साथ (सं नेष) मिला। हे (हरिवन्) दुःखहारी, ज्ञान और कर्मनिष्ठ विद्वन् ! हमें (स्वस्त्या) कल्याणमय उत्तम फल से (सं नेष) युक्त कर। और (ब्रह्मणा) ब्रह्म, वेद, ज्ञान द्वारा, (यत्) जो कुछ (देव-हितं) विद्वानों और शिल्पज्ञ श्रेष्ठ पुरुषों को हितकारी या देव-दिव्य पदार्थों में स्थित, गुण या ज्ञानी पुरुषों में विद्यमान ज्ञान और तप है उसको भी, हमें (सं नेष) प्राप्त करा, और (यज्ञियानां) यज्ञ के योग्य, यज्ञशील (देवानाम्) देव, विद्वान् पुरुषों की (सु-मतौ) शुभ सम्मति में हमें (सं नेष) चला। गौण रूप से धनैश्वर्य आदि सम्पन्न विद्वान्, सत्तावान् गृहस्थ के प्रति प्रजाओं का यह वचन भी उपयुक्त है।
टिप्पणी
(प्र०) ‘समिन्द्र णो’ (द्वि०) ‘सं सूरिभिर्वो सं स्वस्ति’ (च०) ‘सुमत्यायज्ञियानाम्’ इति ऋग्वेदीयः पाठभेदः। (प्र०), ‘समिन्द्र णो’ (द्वि०) ‘संसूरिभिर्मघवन्’ (तृ०) ‘सं ब्रह्मणा देवकृतं’ (च०) ‘यशियानां स्वाहा’ इति याजुषाः पाठभेदाः ऋग्वेदेऽस्या अत्रिर्ऋषिः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यज्ञासम्पूणकामोऽथर्वा ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते। १-४ त्रिष्टुभः। ५ त्रिपदार्षी भुरिग् गायत्री। त्रिपात् प्राजापत्या बृहती, ७ त्रिपदा साम्नी भुरिक् जगती। ८ उपरिष्टाद् बृहती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yajna
Meaning
O Ruler and high priest of the nation, Indra, equipped with full powers in the social dynamics of progress, lead us on with all our mind, sense and will, with all noble and brave leaders, with the best of social interest and welfare, with sacred knowledge of universal value and all that is in the interest of noble and generous people, and all that is good in the judgement and understanding of enlightened and adorable people dedicated to total good of humanity.
Translation
With a willing mind, may the resplendent Lord grant us wisdom and wealth; may the Lord of light associate us with pious men of learning, with prosperity, with sacrificial food, and that which is acceptable to Nature’s bounties and with the favour of the adorable godly men (yajniyanam). (Also Rg. V.42.4)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.102.2AS PER THE BOOK
Translation
O Indra (Almighty Divinity)! please unite us with sound mind, unite us with sound limbs, keep us in company of the learned and connect us with blessedness. O Destroyer of miseries! unite us with whatever is the divine merit through the knowledge of the Vedas and keep me in favor of the learned ones who perform the yajnas.
Translation
O Refulgent God, equip us with a reflective mind, Vedic teachings, learned persons, virtue, knowledge beneficent to the scholars, and lead us on the path of righteousness. Let us follow the good-will of the sages who merit adoration.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(सम्) सम्यक्। यथावत् (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् राजन् (नः) अस्मान् (मनसा) विज्ञानेन (नेष) णीञ् प्रापणे-लोटि शप्। सिब्बहुलं लेटि। पा० ३।१।३४। इति सिप्। अतो हेः। पा० ६।४।१०५। इति हेर्लोपः। नय। प्रापय (गोभिः) इन्द्रियैर्वाग्भिर्वा (सूरिभिः) अ० २।११।४। विद्वद्भिः (हरिवन्) हरयो मनुष्याः-निघ० २।३। प्रशस्तमनुष्ययुक्त (सम्) (स्वस्त्या) अ० १।३०।२। सुसत्तया। क्षेमेण (सम्) (ब्रह्मणा) वेदेन धनेनान्नेन वा (देवहितम्) विद्वद्भ्यो हितम् (यत्) ब्रह्म (अस्ति) (सम्) (देवानाम्) विदुषाम् (सुमतौ) श्रेष्ठायां बुद्धौ (यज्ञियानाम्) पूजार्हाणाम् ॥
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