अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 97/ मन्त्र 4
सु॒गा वो॑ देवाः॒ सद॑ना अकर्म॒ य आ॑ज॒ग्म सव॑ने मा जुषा॒णाः। वह॑माना॒ भर॑माणाः॒ स्वा वसू॑नि॒ वसुं॑ घ॒र्मं दिव॒मा रो॑ह॒तानु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽगा । व॒: । दे॒वा॒: । सद॑ना । अ॒क॒र्म॒ । ये । आ॒ऽज॒ग्म । सव॑ने । मा॒ । जु॒षा॒णा: । वह॑माना: । भर॑माणा: । स्वा । वसू॑नि । वसु॑म् । घ॒र्मम् । दिव॑म् । आ । रो॒ह॒त॒ । अनु॑ ॥१०२.४॥
स्वर रहित मन्त्र
सुगा वो देवाः सदना अकर्म य आजग्म सवने मा जुषाणाः। वहमाना भरमाणाः स्वा वसूनि वसुं घर्मं दिवमा रोहतानु ॥
स्वर रहित पद पाठसुऽगा । व: । देवा: । सदना । अकर्म । ये । आऽजग्म । सवने । मा । जुषाणा: । वहमाना: । भरमाणा: । स्वा । वसूनि । वसुम् । घर्मम् । दिवम् । आ । रोहत । अनु ॥१०२.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य धर्म का उपदेश।
पदार्थ
(देवाः) हे विद्वानो ! (वः) तुम्हारे लिये (सुगा) सुख से पहुँचने योग्य (सदना) आसनों को (अकर्म) हमने बनाया है, (ये) जो तुम [अपने] (सवने) ऐश्वर्य में (मा) मुझे (जुषाणाः) प्रसन्न करते हुए (आजग्म) आये हो (स्वा) अपनी (वसूनि) श्रेष्ठ वस्तुओं को (वहमानाः) पहुँचाते हुए और (भरमाणाः) पुष्ट करते हुए तुम (वसुम्) श्रेष्ठ (घर्मम्) दिन और (दिवम् अनु) व्यवहार के बीच (आ रोहत) चढ़ते जाओ ॥४॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों का आदर मान करके अपनी उन्नति करें ॥४॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−८।१८ ॥
टिप्पणी
४−(सुगा) अ० ३।३।४। सुखेन गन्तव्यानि (वः) युष्मभ्यम् (देवाः) हे विद्वांसः (सदना) आसनानि (अकर्म) वयं कृतवन्तः (ये) यूयम् (आजग्म) आगताः स्थ (सवने) ऐश्वर्ये (मा) माम् (जुषाणाः) प्रीणन्तः (वहमानाः) प्रापयन्तः (भरमाणाः) पोषयन्तः (स्वा) स्वकीयानि (वसूनि) श्रेष्ठानि वस्तूनि (वसुम्) श्रेष्ठम् (घर्मम्) दिनम् (दिवम्) दिवु व्यवहारे-क। व्यवहारम् (आ रोहत) आरूढा भवत (अनु) प्रति ॥
विषय
'वसुं घर्म दिवम्' अनु
पदार्थ
१. हे (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषो! (व:) = आपके (सदनानि) = स्थानों को (सुगा अकर्म) = सुख से जाने योग्य करते हैं। उन आपके (ये) = जोकि (मा जुषाणा:) = मेरे प्रति प्रीतिवाले होते हुए (सवने आजग्म) = मेरे इस यज्ञ में आये हो। २. आप (स्वा वसूनि) = अपने ज्ञान-धनों को (वहमाना:) = हमें प्राप्त कराते हुए तथा (भरमाणा:) = हमारे लिए इन धनों का पोषण करते हुए (वसंघर्म दिवम् अनु आरोहत) = ऐश्वर्य, शक्ति व ज्ञान के अनुपात में उत्कृष्ट लोक में आरोहण करनेवाले बनो।
भावार्थ
हमारे घरों में देववृत्ति के पुरुष आएँ। समय-समय पर होनेवाले यज्ञों में वे हमारे प्रति प्रीतिवाले होते हुए उपस्थित हों। हम उनके लिए सुखद स्थान की व्यवस्था करें। वे हमारे लिए ज्ञान-धनों को प्राप्त कराते हुए अपने ज्ञान व शक्ति के अनुसार उत्कृष्ट लोकों को प्राप्त करनेवाले हों।
भाषार्थ
(देवाः) हे गुरुदेवो ! (वः) तुम्हारे लिये (सुगा) सुगम्य (सदना= सदनानि) गृह (अकर्म) हमने तय्यार कर दिये हैं, (ये) जो तुम कि (सवने) सोमयज्ञ में - (मा जुषाणाः) मेरी प्रीतिपूर्वक सेवा करने वाले (आजग्म) आए हो। तुम (स्वा=स्वानि) अपने (वसूनि) ज्ञान-धनों को (वहमानाः) अपने साथ वहन करते हुए (भरमाणः) और उनका पोषण करते हुए, (वसुम्) निवास प्रदाई (धर्मम्) प्रदीप्त आदित्य पर, (अनु) और तत्पश्चात् (दिवम्) द्युलोक पर (आरोहत) आरोहण करो।
टिप्पणी
[सुगा= सुगानि; गृह ऐसे होने चाहिये जिन में जाना-आना सुगम हो, कपाट बड़े हों, छत्ते ऊंची हों, तथा मध्यवर्ती स्थान अच्छा खुला हो। ब्रह्मचर्य ३ प्रकार का होता है। वसुकोटि का ब्रह्मचर्य प्रातःसवन है, रुद्र कोटि का ब्रह्मचर्य माध्यन्दिनसवन है, तथा आदित्यकोटि का ब्रह्मचर्य तृतीयसवन है (सत्यार्थप्रकाश, तृतीय समुल्लास, तथा छान्दोग्योपनिषद् ३।१६)। व्याख्येय मन्त्र (४) में "सवन" प्रातःसवन है, जो वसुकोटि के ब्रह्मचर्य का सूचक है। वसुकोटि के आचार्यों से निवेदन किया है कि वे निज ज्ञानभण्डार को अपने साथ लाएं, और उस ज्ञान-भण्डार को बढ़ाते रहें। और जीवन की समाप्ति पर वे ऊर्ध्वारोहण करें। घर्मम्= (जुहोत्यादिः), इस द्वारा आदित्य अभिप्रेत है, जिसमें कि " ओ३म् खं ब्रह्म" का निवास है (यजु० ४०।१७) अन्त में मुक्तात्माओं स्थिति "नाक" में होती है। यथा "ते ह नाकन महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः" (यजु० ३१।१६)। नाक में चतुष्पाद् ब्रह्म का साक्षात् ज्ञान होता है।]
विषय
ऋत्विजों का वरण।
भावार्थ
राजा का विद्वान् गुणज्ञों के प्रति वचन। हे (देवाः) विद्वान् गुणज्ञ पुरुषो ! (वः) आप लोगों के लिये (सुगा) सुख से प्राप्त करने, एवं निवास करने योग्य (सदना) घर (अकर्म) बना देते हैं। (ये) जो आप लोग (जुषाणाः) प्रेम से युक्त होकर (सदने) इस राष्ट्रमय यज्ञ या मेरी प्रेरणा में (आ-जग्म) आते हैं वे आप लोग (स्वा) अपने अपने योग्य (वसूनि) वास करने के निमित्त उचित वेतन आदि धनों को (भरमाणाः) लेते हुए (वसु) अपने विज्ञान और शिल्प रूप (धर्मम्) प्रकाशमान (दिवम्) हुनर को (अनु आ रोहत) मेरे राष्ट्र के अनुकूल या आवश्यकतानुकूल प्रादुर्भाव करो, बढ़ाओ, उसका अभ्यास करो और बढ़ाओ। अथवा (वसु धर्मं दिवं भा रोहत अनु) वास योग्य, प्रकाश से युक्त स्वर्ग समान उत्तम पद पर आरूढ़ होओ। तीसरा चौथा दोनों मन्त्र अध्यात्म पक्ष में बड़े स्पष्ट हैं। (१) (यान् उशतः आवह हे देवतान् अग्ने स्वे सधस्थे प्रेरय) हे देव आत्मन् ! अग्ने ! मुख्य प्राण ! सबके नेतः ! विषयों की अभिलाषा करने वाली जिन इन्द्रियों को तुम धारण करते हो उनको अपने अपने स्थान में प्रेरित करो। (जक्षिवांसः पपिवांसो मधूनि अस्मै वसूनि घत्त) हे वासकारी प्राणो ! तुम इस देह में कर्म-फल भोगते ओर विषय-रस का पान करते हुए भी मधुरज्ञान आत्मा को प्रदान करो। (२) (हे देवाः वः सुगा सदना अकर्म ये मे जुषाणा: आजग्म) हे प्राणगण ! देवो ! जो आप मुझ आत्मा के जीवनमय यज्ञ में मेरे से प्रीति रखते हुए आ गये हो तो तुम्हारे लिये सुख से गमन करने योग्य इन्द्रिय-आयतनों को मैंने बना दिया है। (स्वा वसूनि वहमानाः भरमाणाः वसु धर्मं दिवम् अनु आरोहत) अपने अपने प्राणों को धारण करते हुए और ज्ञान को धारण करते हुए पुनः प्रकाशस्वरूप मोक्षानन्द को प्राप्त करो। इसी शैली पर यह वचन ईश्वर का मुक्त और भक्त आत्माओं के प्रति भी जानना चाहिये।
टिप्पणी
‘य आजग्मेदं सवनं जुषाणाः’ (तृ०) ‘वहमाना हवींष्यस्मे धत्त वसवो वसूनि स्वाहा’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
यज्ञासम्पूणकामोऽथर्वा ऋषिः। इन्द्राग्नी देवते। १-४ त्रिष्टुभः। ५ त्रिपदार्षी भुरिग् गायत्री। त्रिपात् प्राजापत्या बृहती, ७ त्रिपदा साम्नी भुरिक् जगती। ८ उपरिष्टाद् बृहती। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yajna
Meaning
O Devas, high priest and expert sages and scholars, who have come and joined this yajnic programme with love and favour to me, we have provided comfortable seats and homes of residence for you. Bearing, bringing and extending your own wealth, power and yajnic materials, create now the wealth of heat and light for humanity and rise to the heavenly heights of excellence and the joy of achievement.
Translation
O enlightened ones, who pleased with us have come to this sacrifice, we have made seats easily accessible to you. Having collected and carrying your riches, may you ascend to your dwelling place in the bright sky. (Also Yv. VIII.18)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.102.4AS PER THE BOOK
Translation
O learned men! we, the Persons performing yajna have made easily accessible seats for you who pleased with us have come to my yajna. O learned ones! bearing and giving your wealth’s of knowledge and filling up the oblatory thing in the cauldron mount to the state of light and enlightenment.
Translation
O learned persons, for ye, have we erected these comfortable houses. Full of love, ye have come to my kingdom. Accepting deserving salary for your livelihood, strengthening your splendid knowledge and technical skill, spread them for the benefit of, and according to the needs of my state.
Footnote
A king addresses these words to learned persons, whom he has invited from outside to work in his country as his employees.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(सुगा) अ० ३।३।४। सुखेन गन्तव्यानि (वः) युष्मभ्यम् (देवाः) हे विद्वांसः (सदना) आसनानि (अकर्म) वयं कृतवन्तः (ये) यूयम् (आजग्म) आगताः स्थ (सवने) ऐश्वर्ये (मा) माम् (जुषाणाः) प्रीणन्तः (वहमानाः) प्रापयन्तः (भरमाणाः) पोषयन्तः (स्वा) स्वकीयानि (वसूनि) श्रेष्ठानि वस्तूनि (वसुम्) श्रेष्ठम् (घर्मम्) दिनम् (दिवम्) दिवु व्यवहारे-क। व्यवहारम् (आ रोहत) आरूढा भवत (अनु) प्रति ॥
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