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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    ऋषिः - अथर्वाचार्यः देवता - विराट् छन्दः - द्विपदा साम्नी त्रिष्टुप् सूक्तम् - विराट् सूक्त
    1

    न च॑ प्रत्याह॒न्यान्मन॑सा॒ त्वा प्र॒त्याह॒न्मीति॑ प्र॒त्याह॑न्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । च॒ । प्र॒ति॒ऽआ॒ह॒न्यात् । मन॑सा । त्वा॒ । प्र॒ति॒ऽआह॑न्मि । इति॑ । प्र॒ति॒ऽआह॑न्यात् ॥१५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न च प्रत्याहन्यान्मनसा त्वा प्रत्याहन्मीति प्रत्याहन्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । च । प्रतिऽआहन्यात् । मनसा । त्वा । प्रतिऽआहन्मि । इति । प्रतिऽआहन्यात् ॥१५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 10; पर्यायः » 6; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्मविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (च) और (न) अब वह [विद्वान्] [विष को म० ३] (प्रत्याहन्यात्) हटा देवे, “[हे विष] ! (मनसा) मनन के साथ (त्वा) तुझ को (प्रत्याहन्मि) मैं निकाले देता हूँ,” (इति) इस प्रकार वह [उसे] (प्रत्याहन्यात्) हटा देवे ॥२॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य विचारपूर्वक दोष हटाने का प्रयत्न करता है, ब्रह्म की कृपा से उसके सब दोष क्षीण हो जाते हैं ॥२॥

    टिप्पणी

    २, ३−(न) सम्प्रति-निरु० ७।३१। (च) (मनसा) मननेन (त्वा) त्वां विषम् (प्रत्याहन्मि) प्रतिकूलं नाशयामि (इति) (यत्) यमयतीति। यत्। यम-क्विप्। गमादीनामिति वक्तव्यम्। वा० पा० ६।४।४०। मलोपः। नियन्तृ ब्रह्म (विषम्) दोषम् (एव) एवम् (तत्) म० १। विस्तारकं ब्रह्म अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    विषम्-जलम् [ आपः रेतो भूत्वा० ]

    पदार्थ

    १. (यस्मै) = जिस (एवं विदुषे) = इसप्रकार जल के महत्त्व को समझनेवाले व्यक्ति के लिए (अलाबुना) = न चूने के द्वारा (तत्) = उस जल का-(आपः रेतो भूत्वा) = रेत:कणों का (अभिषिञ्चेत्) = सेचन करे, अर्थात् यदि प्रभुकृपा से रेत:कणरूप इन जलों का अवलंसन न होकर शरीर में अभिसेचन हो तो वह (प्रत्याहन्यात्) = प्रत्येक रोग का विनाश करता है (च) = और (न प्रत्याहन्यात्) = प्रत्येक रोग का विनाश न भी कर पाये तो भी (मनसा) = मन से ('त्वा प्रत्याहन्मि इति') = प्रत्याइन्यात्-तुझे नष्ट करता हूँ, इसप्रकार नष्ट करनेवाला हो। रोग से अभिभूत न होकर वह रोग को अभिभूत करनेवाला बने। मन में स्वस्थ हो जाने' का पूर्ण निश्चय रक्खे। २. (यत् प्रत्याहन्ति) = जो तत्त्व रोगों का नाश करता है (तत्) = वह (विषम् एव) = जलरूप रेत:कण ही उन्हें (प्रत्याहन्ति) = नष्ट करता है। वस्तुतः रेत:कण ही रोगों का नाश करते हैं। (यः एवं वेद) = जो इसप्रकार (विषम्) = जल-रेत:कणों के महत्त्व को समझा लेता है, (अस्य) = इसके (अप्रियं भातृव्यम्) = अप्रीतिकर शत्रु [रोगरूप शत्रु] को (अनु) = लक्ष्य करके (विषम् एव विषिच्यते) = यह जल शरीर में सिक्त किया जाता है। शरीर-सिक्त रेत:कण रोग-शत्रुओं के विनाश का कारण बनते हैं

    भावार्थ

    जब मनुष्य रेत:कणों के महत्त्व को समझ लेता है तब इनका अवासन न होने देकर हन्हें शरीर में ही सिक्त करता है। शरीर-सिक्त रेत:कण रोगों का विनाश करते हैं। इनके रक्षण से रोगी का मन रोगाभिभूत नहीं होता।

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    भाषार्थ

    (न च) अथवा न (प्रति) प्रतिफलरूप में (आहन्यात्) मारे। परन्तु (मनसा) मन द्वारा मनन करके (त्वा) हे विषप्रयोक्ता ! तुझे (प्रति) प्रतिफलरूप में (आहन्मि) मैं मार डालता हूं, (इति) इस प्रकार संकल्प कर के (प्रति) प्रतिफलरूप में (आहन्यात्) मार डाले।

    टिप्पणी

    [विषप्रयोक्ता है मनुष्य, न कि सर्प-कृमि। विषप्रयोक्ता मनुष्य को मारे या न मारे यह सन्देहास्पद है। निर्णय यह है कि विषप्रयोक्ता को मार ही डाले, ताकि वह निर्भय होकर अन्यों पर भी विषप्रयोग न करत रहे]।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Virat

    Meaning

    If he does not or cannot counter the poison, he must determine and say: I must counter and destroy the poison with all my force.

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    Translation

    If he could not counter it (in time), he should counter it by thinking : "I counter you back."

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    Translation

    If he did not repel the poison he would do it if he says in his mind. “I word off this poison by mind”. .

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    Translation

    He should now drive out his weakness. O vice, I remove thee, through my will power. He should thus wipe out his vice.

    Footnote

    न does not mean no. It means now. (न) सम्प्रति-निरु० 7-31.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २, ३−(न) सम्प्रति-निरु० ७।३१। (च) (मनसा) मननेन (त्वा) त्वां विषम् (प्रत्याहन्मि) प्रतिकूलं नाशयामि (इति) (यत्) यमयतीति। यत्। यम-क्विप्। गमादीनामिति वक्तव्यम्। वा० पा० ६।४।४०। मलोपः। नियन्तृ ब्रह्म (विषम्) दोषम् (एव) एवम् (तत्) म० १। विस्तारकं ब्रह्म अन्यत् पूर्ववत् ॥

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