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अथर्ववेद - काण्ड 1/ सूक्त 22/ मन्त्र 4
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - हृद्रोगः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - हृद्रोगकामलाशन सूक्त
सुके॑षु ते हरि॒माणं॑ रोप॒णाका॑सु दध्मसि। अथो॒ हारि॑द्रवेषु ते हरि॒माणं॒ नि द॑ध्मसि ॥
स्वर सहित पद पाठसुके॑षु । ते॒ । ह॒रि॒माण॑म् । रो॒प॒णाका॑सु । द॒ध्म॒सि॒ । अथो॒ इति॑ । हारि॑द्रवेषु । ते॒ । ह॒रि॒माण॑म् । नि । द॒ध्म॒सि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुकेषु ते हरिमाणं रोपणाकासु दध्मसि। अथो हारिद्रवेषु ते हरिमाणं नि दध्मसि ॥
स्वर रहित पद पाठसुकेषु । ते । हरिमाणम् । रोपणाकासु । दध्मसि । अथो इति । हारिद्रवेषु । ते । हरिमाणम् । नि । दध्मसि ॥
अथर्ववेद - काण्ड » 1; सूक्त » 22; मन्त्र » 4
विषय - हरिमा का उचित स्थान [तोते व पौधे]
पदार्थ -
१. गतमन्त्रों के अनुसार सूर्य-किरणों व कपिल वर्ण की गौओं के दूध के प्रयोग से रुधिर की कमी के कारण होनेवाली पीतिमा [हरिमा] को दूर करके मनुष्य को नौरोग बनाने का विधान है। यहाँ वेद काव्यमय भाषा में कहता है-(ते हरिमाणम्) = तेरी इस हरिमा को (शुकेषु) = तोतों में (दध्मसि) = धारण करते हैं और (रोपणाकासु) = ओषधिविशेषों में धारण करते हैं। तोतों में और इन ओषधियों में यह हरिमा रोगरूप से प्रतीत नहीं होती, अत: इस हरिमा का स्थान इनमें ही है। अपने स्थान पर यह शोभा का कारण बनती है। मानव-शरीर में यह रोग की सूचना देती है। २. (अथ उ) = और अब (ते हरिमाणम्) = तुझमें रहनेवाली इस हरिमा को तुझसे दूर करके (हारिद्रवेषु) = कदम्ब के वृक्षों में (निदध्मसि) = निश्चय से स्थापित करते हैं। यह हरिमा इन वृक्षों की शोभा-वृद्धि का कारण बनती है।
भावार्थ -
हरिमा तोतों में, रोपणा नामक ओषधिविशेषों में तथा कदम्ब-वृक्षों में शोभा का कारण होती है, अत: इसे वहीं स्थापित करते हैं। मानव-शरीर इसका स्थान नहीं है, वहाँ तो यह रोग की सूचना देती है।
विशेष -
यह सूक्त सूर्योदय के समय की अरुण किरणों व कपिला गौओं के दूध के प्रयोग से हृद्रोग व हरिमा के दूर करने का प्रतिपादन कर रहा है। इसीप्रकार अगला सूक्त श्वेतकुष्ठ के दूरीकरण के लिए औषध-विशेष का प्रतिपादन करता है |