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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    सूक्त - गार्ग्यः देवता - नक्षत्राणि छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त

    सु॒हव॑मग्ने॒ कृत्ति॑का॒ रोहि॑णी॒ चास्तु॑ भ॒द्रं मृ॒गशि॑रः॒ शमा॒र्द्रा। पुन॑र्वसू सू॒नृता॒ चारु॒ पुष्यो॑ भा॒नुरा॑श्ले॒षा अय॑नं म॒घा मे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽहव॑म्। अ॒ग्ने॒। कृत्ति॑काः। रोहि॑णी। च॒। अस्तु॒॑। भ॒द्रम्। मृ॒गऽशि॑रः। शम्। आ॒र्द्रा। पुन॑र्वसु॒ इति॑ पुनः॑ऽवसू। सू॒नृता॑। चारु॑। पुष्यः॑। भा॒नुः। आ॒ऽश्ले॒षाः। अय॑नम्। म॒घाः। मे॒॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुहवमग्ने कृत्तिका रोहिणी चास्तु भद्रं मृगशिरः शमार्द्रा। पुनर्वसू सूनृता चारु पुष्यो भानुराश्लेषा अयनं मघा मे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽहवम्। अग्ने। कृत्तिकाः। रोहिणी। च। अस्तु। भद्रम्। मृगऽशिरः। शम्। आर्द्रा। पुनर्वसु इति पुनःऽवसू। सूनृता। चारु। पुष्यः। भानुः। आऽश्लेषाः। अयनम्। मघाः। मे॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 7; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (कृतिका रोहिणी च) = कृतिका और रोहिणी नक्षत्र (सुहवम् अस्तु) = उत्तमता से प्रार्थनीय हों। 'कृतिका' से मैं शत्रुओं के-काम-क्रोध के छेदन की प्रेरणा लूँ और शत्रुओं का छेदन करता हुआ 'रोहिणी' से उन्नतिपथ पर आरोहण का पाठ पढूँ। (मृगशिरः भद्रम्) = मृगशिरस् नक्षत्र मेरे लिए कल्याणकर हो। उन्नत होने के लिए में आत्मान्वेषण करनेवालों का मुर्धन्य बनें [मग अन्वेषणे]। अब 'आर्द्रा नक्षत्र (शम्) = मझे शान्ति देनेवाला हो। मैं सबके प्रति स्नेहाहदय बनकर शान्त जीवनवाला होऊँ। २. (पुनर्वसू) = 'पुनर्वसू' नामक नक्षत्र (सुनता) = मुझे प्रिय सत्यवाणी को प्राप्त कराएँ। 'पुनर्वसू' द्विवचन में है। ये मुझे भौतिक व अध्यात्म' दोनों जीवनों को नये सिरे से प्रारम्भ करने की प्रेरणा देते हैं। इस प्रेरणा को प्राप्त करके मैं प्निय सत्य बोलनेवाला बनता हूँ। (पुष्यः) = पुष्यनक्षत्र (चारु) = मेरे जीवन का सुन्दर पोषण करे। वस्तुतः प्रिय, सत्यवाणी को अपनाता हुआ ही मैं अपना उत्तम पोषण कर पाता हूँ। अब (आश्लेषा) = 'आश्लेषा' नक्षत्र (भानु:) = मेरे जीवन को दीस करता है। जीवन का ठीक पोषण करनेवाला व्यक्ति प्रभु से आश्लेषण [आलिंगन] करनेवाला होता है। इस आश्लेषण से इसका जीवन दीप्त हो उठता है और अब (मघा मे अयनम्) = मघा-नक्षत्र मेरा अन्तिम लक्ष्य स्थान हो। [मघ-ऐश्वर्य] में वास्तविक ऐश्वर्य को ही अपना लक्ष्य बनाऊँ। इन प्राकृतिक ऐश्वयों के आकर्षण से ऊपर उठ जाऊँ।

    भावार्थ - शत्रुओं का छेदन करता हुआ [कृत्तिका] मैं उन्नति-पथ पर आरोहण करूँ [रोहिणी]। आत्मान्वेषण करनेवालों का मूर्धन्य बनकर [मृगशिरस्] सबके प्रति आर्द्रहदय [आ] बने। भौतिक व अध्यात्म दोनों जीवनों को उत्तम बनाकर [पुनर्वसू] अपना सम्यक् पोषण करूँ [पुष्य]। अब प्रभु से आलिंगन करता हुआ [आश्लेषा] वास्तविक ऐश्वर्य को प्राप्त कर [मघा]।

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