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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 7/ मन्त्र 3
    सूक्त - गार्ग्यः देवता - नक्षत्राणि छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त

    पुण्यं॒ पूर्वा॒ फल्गु॑न्यौ॒ चात्र॒ हस्त॑श्चि॒त्रा शि॒वा स्वा॒ति सु॒खो मे॑ अस्तु। राधे॑ वि॒शाखे॑ सु॒हवा॑नुरा॒धा ज्येष्ठा॑ सु॒नक्ष॑त्र॒मरि॑ष्ट॒ मूल॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुण्य॑म्। पूर्वा॑। फल्गु॑न्यौ। च॒। अत्र॑। हस्तः॑। चि॒त्रा। शि॒वा। स्वा॒ति। सु॒ऽखः। मे॒। अ॒स्तु॒। राधे॑। वि॒ऽशाखे॑। सु॒ऽहवा॑। अ॒नु॒ऽरा॒धा। ज्येष्ठा॑। सु॒ऽनक्ष॑त्रम्। अरि॑ष्ट। मूल॑म् ॥७.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुण्यं पूर्वा फल्गुन्यौ चात्र हस्तश्चित्रा शिवा स्वाति सुखो मे अस्तु। राधे विशाखे सुहवानुराधा ज्येष्ठा सुनक्षत्रमरिष्ट मूलम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुण्यम्। पूर्वा। फल्गुन्यौ। च। अत्र। हस्तः। चित्रा। शिवा। स्वाति। सुऽखः। मे। अस्तु। राधे। विऽशाखे। सुऽहवा। अनुऽराधा। ज्येष्ठा। सुऽनक्षत्रम्। अरिष्ट। मूलम् ॥७.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 7; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. अब (अत्र) = यहाँ-इस जीवन में (पूर्वाफगुन्यौ) = पूर्वाफलानी के दो नक्षत्र (पुण्यम्) = मुझे शुभ कर्मों में प्रवृत्त करनेवाले हों। इस जीवन में 'धन व यश' की असारता को समझता हुआ [फल्ग-Unsubstantial] इनके कारण पुण्यमार्ग से विचिलत न होऊँ। (हस्तः चित्रा) = हस्त और चित्रा नक्षत्र मुझे हाथों से यज्ञ आदि कर्मों के करने तथा ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञानप्राप्ति में [चित्-र] लगे रहने की प्रेरणा देते हुए (शिवा) = मेरे लिए कल्याणकर हों। अब (स्वाति) = 'स्वाति नक्षत्र [स्वनैव अतति] मुझे किसी पर आश्रित न होते हुए गतिशील बनने की प्रेरणा देता हुआ (मे सुखः अस्तु) = मेरे लिए सुखकर हो। २. इस गतिशीलता [पुरुषार्थ] के होने पर (राधे विशाखे) = हे राधा और विशाखा नक्षत्र! तुम दोनों मुझे कार्यसिद्धि [राधा] व संसार-वृक्ष की विशिष्ट शाखा [उत्तम सात्विक ज्ञानप्रधान संन्यासी] बनने की प्रेरणा देते हुए (सुहवा) = उत्तम प्रार्थना करने योग्य होओ। मैं प्रभु से 'राधा व विशाखा' बन सकने की ही प्रार्थना करूं। (अनुराधा ज्येष्ठा) = 'अनुराधा' नक्षत्र मुझे [लक्ष्य] के अनुकूल सफलता की प्रेरणा दे। ज्येष्ठा' नक्षत्र से मैं ज्येष्ठ [प्रशस्यतम जीवनवाला] बनने की प्रेरणा लूँ और तब (सुनक्षत्रम् मूलम्) = यह 'मूल' नामक उत्तम नक्षत्र मुझे उस ब्रह्माण्ड के मूल [सर्वाधार] प्रभु को स्मरण कराता हुआ (अ-रिष्ट) = अहिंसित करनेवाला हो|

    भावार्थ - मैं इस संसार में धन व यश की एषणा में फँसकर मार्ग-विचलित न हो जाऊँ। यज्ञादि कर्मों व ज्ञानप्राप्ति में लगा रहूँ। अपराधीन होते हुए गतिशील बना रहूँ। 'सफलता व संसार में सर्वोत्तम स्थिति में पहुँचना' मेरा लक्ष्य हो। धर्मानुकूल सफलता मेरे जीवन को प्रकाशमय बनाए। मैं ब्रह्माण्ड के मूल प्रभु को कभी न भूलें।

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