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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
    सूक्त - गार्ग्यः देवता - नक्षत्राणि छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - नक्षत्र सूक्त

    आ मे॑ म॒हच्छ॒तभि॑ष॒ग्वरी॑य॒ आ मे॑ द्व॒या प्रोष्ठ॑पदा सु॒शर्म॑। आ रे॒वती॑ चाश्व॒युजौ॒ भगं॑ म॒ आ मे॑ र॒यिं भर॑ण्य॒ आ व॑हन्तु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। मे॒। म॒हत्। श॒तऽभि॑षक्। वरी॑यः। आ। मे॒। द्व॒या। प्रोष्ठ॑ऽपदा। सु॒ऽशर्म॑। आ। रे॒वती॑। च॒। अ॒श्व॒ऽयुजौ॑। भग॑म्। मे॒। आ। मे॒। र॒यिम्। भर॑ण्यः। आ। व॒ह॒न्तु॒ ॥७.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ मे महच्छतभिषग्वरीय आ मे द्वया प्रोष्ठपदा सुशर्म। आ रेवती चाश्वयुजौ भगं म आ मे रयिं भरण्य आ वहन्तु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। मे। महत्। शतऽभिषक्। वरीयः। आ। मे। द्वया। प्रोष्ठऽपदा। सुऽशर्म। आ। रेवती। च। अश्वऽयुजौ। भगम्। मे। आ। मे। रयिम्। भरण्यः। आ। वहन्तु ॥७.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 7; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    १. यह महत् (शतभिषक्) = महान् 'शतभिषक्' नामक नक्षत्र शतवर्षपर्यन्त नीरोग रहने की प्रेरणा देता हुआ (मे) = मेरे लिए (वरीय:) = [उरुतर] दीर्घजीवन को (आ) [वहतु] = प्राप्त कराए। इस नीरोग दीर्घजीवन में (द्वया प्रोष्ठपदा) = दोनों प्रोष्ठपदा नक्षत्र-पूर्वाभाद्रपदा और उत्तरा भाद्रपदा मुझे कल्याण के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए (मे) = मेरे लिए (सशर्म) = उत्तम सुख को (आ) [वहताम्] = प्राप्त कराएँ । २. अब (रेवती आश्वयुजौ च) = रेवती और आश्वयुज् नक्षत्र मुझे ज्ञानेश्वर्य प्राप्त करने की तथा कर्मेन्द्रियों को यज्ञ आदि कर्मों में लगाये रखने की प्रेरणा देते हुए (मे) = मेरे लिए (भगम्) = ऐश्वर्य को (आ) [वहन्तु] = प्रास कराएँ और अन्ततः (भरण्यः) = भरणी नक्षत्र मुझे आत्मम्भरि न बनकर सबके भरण की प्रेरणा देते हुए (रयिम्) = धन को (आहवन्तु) = प्राप्त कराएँ । जब मैं सबके भरण के कार्यों में प्रवृत्त होता हूँ तब उसके लिए आवश्यक साधनभूत धन को प्रभु प्राप्त कराते ही हैं।

    भावार्थ - मैं शतवर्षपर्यन्त नीरोग जीवन बिताने का ध्यान करूँ। उसके लिए सदा कल्याण के मार्ग का आक्रमण करूँ। ज्ञानेश्वर्य को प्राप्त करनेवाला व कर्मेन्द्रियों को यज्ञों में व्याप्त रखनेवाला बनूँ। अन्ततः आत्मम्भरि न बनकर सबका भरण करनेवाला बनूं। अगले सूक्त के ऋषि देवता भी 'गार्य' और 'नक्षत्राणि' ही हैं -

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