अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
सूक्त - चातनः
देवता - शालाग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दस्युनाशन सूक्त
अ॒सौ यो अ॑ध॒राद्गृ॒हस्तत्र॑ सन्त्वरा॒य्यः॑। तत्र॒ सेदि॒र्न्यु॑च्यतु॒ सर्वा॑श्च यातुधा॒न्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒सौ । य: । अ॒ध॒रात् । गृ॒ह: । तत्र॑ । स॒न्तु॒ । अ॒रा॒य्य᳡: । तत्र॑ । से॒दि: । नि । उ॒च्य॒तु॒ । सर्वा॑: । च॒ । या॒तु॒ऽधा॒न्य᳡: ॥१४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
असौ यो अधराद्गृहस्तत्र सन्त्वराय्यः। तत्र सेदिर्न्युच्यतु सर्वाश्च यातुधान्यः ॥
स्वर रहित पद पाठअसौ । य: । अधरात् । गृह: । तत्र । सन्तु । अराय्य: । तत्र । सेदि: । नि । उच्यतु । सर्वा: । च । यातुऽधान्य: ॥१४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
विषय - अरायी, सेदि, यातुधानी
पदार्थ -
१. (असौ) = वह (यः) = जो (अधरात् गृहः) = नीचे पाताल में घर है (तत्र) = वहाँ (अराय्यः) = न देने की वृत्तिवाली गृहिणियाँ (सन्तु) = हों। 'न देना' यह यज्ञ न करने का उपलक्षण है। यज्ञ में 'दान' है। 'न देना' यज्ञ से दूर होना है। यज्ञ से स्वर्गलोक मिलता है तो अयज्ञ से पाताललोक [असुर्य लोक]। २. (तत्र) = वहाँ असुर्यलोक में ही (सेदिः) = [सादयति नाशयति इति सेदिः] नाश की वृत्तिवाली, औरों के कार्यों को ध्वस्त करनेवाली स्त्री का (न्युच्यतु) = निश्चय से समवाय हो सम्बन्ध हो। यह सेदि भी उसी असुर्यलोक में निवास करे। ३. (च) = और (सर्वा:) = सब (यातुधान्य:) = पीड़ा का आधान करनेवाली स्त्रियाँ भी वहीं असुर्यलोक में निवास करें।
भावार्थ -
अदान की वृत्ति, ध्वंस व नाश की वृत्ति तथा पीड़ा देने की वृत्ति-ये सब हमें असुर्यलोक में ले-जानेवाली होती हैं।
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