अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 7
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - आयुः
छन्दः - चतुष्पदा भुरिग्बृहती
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
अर्जु॑नि॒ पुन॑र्वो यन्तु या॒तवः॒ पुन॑र्हे॒तिः कि॑मीदिनीः। यस्य॒ स्थ तम॑त्त॒ यो वः॒ प्राहै॒त्तम॑त्त॒ स्वा मां॒सान्य॑त्त ॥
स्वर सहित पद पाठअर्जु॑नि । पुन॑: । व॒: । य॒न्तु॒ । या॒तव॑: । पुन॑: । हे॒ति: । कि॒मी॒दि॒नी॒: । यस्य॑ । स्थ । तम् । अ॒त्त॒ । य: । व॒: । प्र॒ऽअहै॑त् । तम् । अ॒त्त॒ । स्वा । मां॒सानि॑ । अ॒त्त॒ ॥२४.७॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्जुनि पुनर्वो यन्तु यातवः पुनर्हेतिः किमीदिनीः। यस्य स्थ तमत्त यो वः प्राहैत्तमत्त स्वा मांसान्यत्त ॥
स्वर रहित पद पाठअर्जुनि । पुन: । व: । यन्तु । यातव: । पुन: । हेति: । किमीदिनी: । यस्य । स्थ । तम् । अत्त । य: । व: । प्रऽअहैत् । तम् । अत्त । स्वा । मांसानि । अत्त ॥२४.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 7
विषय - शुद्ध उपायों से अर्जुन
पदार्थ -
१. "अर्जुनि' शब्द एक प्रकार की सर्पिणी के लिए आता है। वस्तुतः अर्ज धातु कमाने के अर्थ में आती है। कुटिलता से, छल-छिद्र से कमाने की वृत्ति ही 'अर्जुनी' है। हे (अर्जुनि) = छल-कपट से कमाने की वृत्ते! (किमीदिनी:) = लूट-खसोट की वृत्तियो! (व:) = तुम्हारे यातवः पीड़ित करनेवाले राक्षसी लोग (पुनः यन्तु) = फिर से तुम्हें ही प्राप्त हों, (हेति: पुन:) = तुम्हारे अस्त्र लौटकर फिर तुमपर ही प्रहार करनेवाले हों। २. (यस्य) = जिसकी (स्थ) = तुम हो (तम् अत्त) = उसे ही खा जाओ, (यः वः प्राहैत्) = जो तुम्हें भेजता है, (तम् अत्त) = उसे ही खा जाओ। (स्वा मांसानि अत्त) = अपने ही मांस को खा जाओ।
भावार्थ -
छल-छिद्र से कमाने की वृत्ति हमसे दूर हो।
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