अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 132/ मन्त्र 1
सूक्त -
देवता - प्रजापतिः
छन्दः - प्राजापत्या गायत्री
सूक्तम् - कुन्ताप सूक्त
आदला॑बुक॒मेक॑कम् ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । अला॑बुक॒म् । एक॑कम् ॥१३२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आदलाबुकमेककम् ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । अलाबुकम् । एककम् ॥१३२.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 132; मन्त्र » 1
विषय - 'सर्वव्यापक-अद्वितीय-कूटस्थ' प्रभु
पदार्थ -
१. (आत्) = सर्वथा [at all] वे प्रभु (अलाबुकम्) = [लवि अवलंसने] न अध:पतनशील हैं। वे प्रभु निराधार होते हुए सर्वाधार हैं। सर्वव्यापक होने से उन्हें आधार की आवश्यकता नहीं। उनके अध:पतन का कोई प्रसंग ही नहीं-'वे किसी स्थान पर न हो' ऐसी बात ही नहीं। २. (एककम्) = वे एक ही हैं। अद्वितीय हैं। अकेले होते हुए भी सर्वज्ञ व सर्वशक्तिमान् होने से वे अपने सब कार्यों को स्वयं कर सकते हैं। उन्हें किसी अन्य के सहाय्य की अपेक्षा नहीं। ३. (अल्लाबुकम्) = वे कभी स्त्रस्त नहीं होते। उन्हें त्रस्त होना ही कहाँ? वे तो पहले ही सब जगह हैं। (निखातकम्) = अपने स्थान पर दृढ़ता से गढ़े हुए हैं, स्थिर हैं-ध्रुव हैं 'कूटस्थः, अचलो ध्रुवः |
भावार्थ - प्रभु सर्वत्र व्यापक होने से अध:पतनशील व लस्त होनेवाले नहीं। वे एक, अद्वितीय हैं। अचल व ध्रुव हैं।
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