अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 132/ मन्त्र 15
द्वौ वा॒ ये शि॑शवः ॥
स्वर सहित पद पाठद्वौ । वा॑ । ये । शिशव: ॥१३२.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वौ वा ये शिशवः ॥
स्वर रहित पद पाठद्वौ । वा । ये । शिशव: ॥१३२.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 132; मन्त्र » 15
विषय - उष्ट्र के तीन नाम [शत्रु-नायक बल]
पदार्थ -
१. प्रकृति के बन्धनों में न फंसनेवाले (उष्ट्रस्य) = वासनाओं को [उष दाहे] दग्ध करनेवाले के (त्रीणि) = तीन (नामानि) = नाम है, अथवा शत्रुओं को झुकानेवाले [नम प्रालीभावे] तीन बल हैं। एक बल 'काम' का पराजय करता है, दूसरा 'क्रोध' का और तीसरा 'लोभ' का। इसप्रकार तीनों शत्रुओं को विनष्ट करके यह स्वर्गीय सुख का अनुभव करता है। २. प्रभु ने इति (अब्रवीत्) = ऐसा कहा कि (एके) = [same] ये सब सम [समान] हैं। ये बल अलग-अलग नहीं हैं। (हिरण्यम्) = [हिरण्यं वै ज्योतिः] ये बल हिरण्य, अर्थात् ज्योतिरूप है। ज्ञान ही वह बल है जिसमें ये सब शत्रु भस्म हो जाते हैं। ३. ये (शिशव:) = [शो तनूकरणे] जो अपनी बुद्धि को सूक्ष्म बनानेवाले हैं, वे कहते हैं कि ये बल (वा) = निश्चय से (द्वौ) = दो भागों में बटे हुए हैं-शरीर में इसका स्वरूप 'क्षत्र' है, मस्तिष्क में 'ब्रह्म'। ये ब्रह्म और क्षत्र मिलकर सब शत्रुओं को भस्म कर देते हैं।
भावार्थ - वासनाओं को दग्ध करनेवाला व्यक्ति तीन शत्रुओं को नमानेवाले बलों को प्राप्त करता है। ये सब बल समान रूप-'हिरण्य' [ज्योति] ही हैं। अथवा ये 'ब्रह्म व क्षत्र' के रूप में हैं।
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