अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 132/ मन्त्र 11
दे॒वी ह॑न॒त्कुह॑नत् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वी । ह॑न॒त् । कुह॑नत् ॥१३२.११॥
स्वर रहित मन्त्र
देवी हनत्कुहनत् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवी । हनत् । कुहनत् ॥१३२.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 132; मन्त्र » 11
विषय - फिर-फिर बन्धन में
पदार्थ -
१. (देवी) = यह चमकती हुई प्रकृति ही हमारी क्रियाओं व अन्तर्नाद को (हनत्) = विनष्ट करती है और (कुहनत्) = बुरी तरह से विनष्ट करती है। यह हमें सुला-सा देती है [दिव् स्वप्ने] और विषय-कीड़ाओं में फैंसा देती है [दिव क्रीडायाम्]। उस समय हम अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं और अन्त:स्थित प्रभु की प्रेरणाओं को नहीं सुन पाते। २. इसका परिणाम यह होता है कि हम (पुनःपुनः) = फिर-फिर (परि आगारम्) = इस शरीर-गृह के ही भागी बनते हैं [परि-भागे]। हमें बार-बार इन शरीर-बन्धनों में आना पड़ता है-हम मुक्त नहीं हो पाते।
भावार्थ - प्रकृति-बन्धनों में फंसने पर मुक्ति सम्भव नहीं। प्रकृति का आकर्षण बन्धन का ही कारण बनता है।
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