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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 10
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    य॒दा वाज॒मस॑नद्वि॒श्वरू॑प॒मा द्याम॑रुक्ष॒दुत्त॑राणि॒ सद्म॑। बृह॒स्पतिं॒ वृष॑णं व॒र्धय॑न्तो॒ नाना॒ सन्तो॒ बिभ्र॑तो॒ ज्योति॑रा॒सा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒दा । वाज॑म् । असनत् । वि॒श्वऽरूपम् । आ । द्याम् । अरु॑क्षत् । उत्ऽत॑राणि । सद्म ॥ बृह॒स्पति॑म् । वृष॑णम् । व॒र्धय॑न्त: । नाना॑ । सन्त: । बिभ्र॑त: । ज्योति॑: । आ॒सा ॥९१.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदा वाजमसनद्विश्वरूपमा द्यामरुक्षदुत्तराणि सद्म। बृहस्पतिं वृषणं वर्धयन्तो नाना सन्तो बिभ्रतो ज्योतिरासा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदा । वाजम् । असनत् । विश्वऽरूपम् । आ । द्याम् । अरुक्षत् । उत्ऽतराणि । सद्म ॥ बृहस्पतिम् । वृषणम् । वर्धयन्त: । नाना । सन्त: । बिभ्रत: । ज्योति: । आसा ॥९१.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार प्रभु की अनुकूलता में (यदा) = जब मनुष्य (विश्वरूपम्) = 'तेज-वीर्य ओजस्, बल, मन्यु व सहस्' इन सब रूपोंवाले (वाजम्) = बल को (असनत्) = प्राप्त करता है, तब यह व्यक्ति (द्याम् अरुक्षत्) = प्रकाशमय लोक का आरोहण करता है, (उत्तराणि सद्य) = उत्कृष्ट गृहों का आरोहण करता है। पृथिवीलोक से ऊपर उठकर यह अन्तरिक्षलोक में पहुँचता है, अन्तरिक्ष से द्युलोक में, द्युलोक से ऊपर उठकर हम ब्रह्मलोक में पहुँचते हैं। यह ब्रह्मलोक ही 'उत्तर सद्य है। २. इस समय हम (बृहस्पतिम्) = ज्ञान के स्वामी (वृषणम्) = शक्तिशाली प्रभु को (वर्धयन्त:) = बढ़ाते हुए होते हैं। उस ब्रह्म का सतत स्मरण करते हुए सबमें उस ब्रह्म की सत्ता को अनुभव करते हुए उनके साथ एकत्व का अनुभव करते हैं। इस अनुभव से (नाना सन्त:) = उन अनेक रूपों में होते हुए (आसा) = मुख से (ज्योति: बिभ्रत:) = प्रकाश का धारण करते हुए होते हैं। उस समय हम सर्वत्र ज्ञान का प्रचार करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ - हम तेजस्विता का धारण करें, प्रकाशमयलोक में आरूढ हों। प्रभु का वर्धन करते हुए भी सबके साथ एकत्व का दर्शन करें और ज्ञान का प्रसार करें।

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