अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 7
स ईं॑ स॒त्येभिः॒ सखि॑भिः शु॒चद्भि॒र्गोधा॑यसं॒ वि ध॑न॒सैर॑दर्दः। ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्वृष॑भिर्व॒राहै॑र्घ॒र्मस्वे॑देभि॒र्द्रवि॑णं॒ व्यानट् ॥
स्वर सहित पद पाठस: । ई॒म् । स॒त्येभि॑: । सखि॑ऽभि: । शु॒चत्ऽभि॒: । गोऽधा॑यसम् । वि । ध॒न॒ऽसै: । अ॒द॒र्द॒रित्य॑दर्द: ॥ ब्रह्म॑ण: । पति॑: । वृष॑ऽभि: । व॒राहै॑: । घ॒र्मऽस्वे॑देभि: । द्रवि॑णम् । वि । आ॒न॒ट् ॥९१.७॥
स्वर रहित मन्त्र
स ईं सत्येभिः सखिभिः शुचद्भिर्गोधायसं वि धनसैरदर्दः। ब्रह्मणस्पतिर्वृषभिर्वराहैर्घर्मस्वेदेभिर्द्रविणं व्यानट् ॥
स्वर रहित पद पाठस: । ईम् । सत्येभि: । सखिऽभि: । शुचत्ऽभि: । गोऽधायसम् । वि । धनऽसै: । अदर्दरित्यदर्द: ॥ ब्रह्मण: । पति: । वृषऽभि: । वराहै: । घर्मऽस्वेदेभि: । द्रविणम् । वि । आनट् ॥९१.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 7
विषय - उत्तम मित्र
पदार्थ -
१. (सः) = वह (ईम्) = सचमुच (सत्येभिः) = सत्य का पालन करनेवाले (शुद्धिः) = अपने मनों को पवित्र बनानेवाले (धनस:) = धनों का संविभाग करनेवाले, अर्थात् सारे-का-सारा स्वयं न खा जानेवाले (सखिभिः) = मित्रों के साथ (गोधायसम्) = इन्द्रियरूप गौओं को चुराकर कहीं अज्ञानान्धकार में छुपाकर रखनेवाले बल [वृत्र-वासना] को (वि अदर्दः) = विदीर्ण करता है। संसार में मित्रों का संग ही हमें बनाता व बिगाड़ता है। अच्छे मित्रों के साथ हम अच्छे बन जाते हैं, बुरों के साथ बिगड़ जाते हैं। यहाँ हमारे मित्र 'सत्य, शचि व धनों' का संविभाग करनेवाले हैं। इनसे और उत्तम मित्र हो ही क्या सकते हैं? २. यह उत्तम मित्रों के साथ वल का विदारण करनेवाला व्यक्ति (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी बनता है और (वृषभिः) = पुण्यों से-पुण्यात्मक कर्मों से (वराहै:) = [वरं आहन्ति-गच्छति] शुभ उपायों के अवलम्बन से तथा (घर्मस्वेदेभिः) = स्वेद के क्षरण से [घ-क्षरणे]-पसीना बहाने के द्वारा (द्रविणम्) = धन को (व्यानट्) = प्राप्त करता है। ज्ञानी बनकर यह धन को पुण्यात्मक कर्मों से-शुभ उपायों से तथा खूब मेहनत से पसीना बहाकर ही कमाता है।
भावार्थ - भावार्थ हमारे मित्र सत्यवादी, पवित्र व नि:स्वार्थी हों। हम पुण्य व शुभ श्रमयुक्त उपायों से ही धनार्जन करें।
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