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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 2
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    ऋ॒तं शंस॑न्त ऋ॒जु दीध्या॑ना दि॒वस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒राः। विप्रं॑ प॒दमङ्गि॑रसो॒ दधा॑ना य॒ज्ञस्य॒ धाम॑ प्रथ॒मं म॑नन्त ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तम् । शंस॑न्त: । ऋ॒जु । दीध्या॑ना: । दि॒व: । पु॒त्रास॑: । असु॑रस्य । वी॒रा: ॥ विप्र॑म् । पद॑म् । अङ्गि॑रस: । दधा॑ना: । य॒ज्ञस्य॑ । धाम॑ । प्रथ॒मम् । म॒न॒न्त॒ ॥९१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतं शंसन्त ऋजु दीध्याना दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः। विप्रं पदमङ्गिरसो दधाना यज्ञस्य धाम प्रथमं मनन्त ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतम् । शंसन्त: । ऋजु । दीध्याना: । दिव: । पुत्रास: । असुरस्य । वीरा: ॥ विप्रम् । पदम् । अङ्गिरस: । दधाना: । यज्ञस्य । धाम । प्रथमम् । मनन्त ॥९१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. गतमन्त्र के अनुसार तुरीयावस्था की ओर चलनेवाले लोग (ऋतं शंसन्त:) = सदा ऋत का ही शंसन करते है-इनके जीवन से अन्त का उच्चारण नहीं होता। (ऋजु दीध्याना:) = ये सदा सरलता से कल्याण का ही ध्यान करनेवाले होते हैं-कभी किसी के अमंगल का विचार नहीं करते। (दिव:-पुत्रासः) = ज्ञान के द्वारा ये अपने जीवन को पवित्र बनाते हैं और (आधि) = व्याधियों से इसका रक्षण करते है [पुनाति त्रायते]। (असुरस्य वीरा:) = ये उस [असून राति] प्राणशक्ति को देनेवाले प्रभु के वीर सन्तान बनते हैं। प्रभु से शक्ति को प्राप्त करके सब बुराइयों को विनष्ट करनेवाले होते हैं। २. (अंगिरस:) = अंग-प्रत्यंग में रसवाले ये वीर पुरुष (विप्रं परम्) = विशेषरूप से अपना पूरण करनेवाले [वि-प्रा] सर्वोच्च स्थान को (दधाना:) = धारण करने के हेतु से (यज्ञस्य) = उस यज्ञरूप प्रभु के (प्रथमं धाम) = सर्वोत्कृष्ट तेज का मनन्त-मनन करते हैं। प्रभु के तेज को अपना लक्ष्य बनाकर ये भी अपने जीवन को यज्ञमय बनाते हैं और उन्नति को प्राप्त करते हुए विप्र पद' को धारण करनेवाले बनते हैं।

    भावार्थ - ऋत का शंसन करते हुए और प्रभु के तेज का स्मरण करते हुए हम उन्नत होने के लिए यत्नशील हों। ऊपर-और-ऊपर उठते हुए हम 'शूद्र से वैश्य', 'वैश्य से क्षत्रिय' व 'क्षत्रिय-पद से विप्र-पद' को प्राप्त करें।

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