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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 91

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 91/ मन्त्र 12
    सूक्त - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९१

    इन्द्रो॑ म॒ह्ना म॑ह॒तो अ॑र्ण॒वस्य॒ वि मू॒र्धान॑मभिनदर्बु॒दस्य॑। अह॒न्नहि॒मरि॑णात्स॒प्त सिन्धू॑न्दे॒वैर्द्या॑वापृथिवी॒ प्राव॑तं नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । म॒ह्ना । म॒ह॒त: । अ॒र्ण॒वस्य॑ । वि । मू॒र्धान॑म् । अ॒भि॒न॒त् । अ॒र्बु॒दस्य॑ ॥ अह॑न् । अहि॑म् । अरि॑णात् । स॒प्त । सिन्धू॑न् । दे॒वै: । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । प्र । अ॒व॒त॒म् । न॒: ॥९१.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो मह्ना महतो अर्णवस्य वि मूर्धानमभिनदर्बुदस्य। अहन्नहिमरिणात्सप्त सिन्धून्देवैर्द्यावापृथिवी प्रावतं नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । मह्ना । महत: । अर्णवस्य । वि । मूर्धानम् । अभिनत् । अर्बुदस्य ॥ अहन् । अहिम् । अरिणात् । सप्त । सिन्धून् । देवै: । द्यावापृथिवी इति । प्र । अवतम् । न: ॥९१.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 91; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    १. (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (महतः अर्णवस्य) = महान् ज्ञानसमुद्र की (महा) = महिमा से (अर्बुदस्य) = वासनारूप मेघ के (मूर्धानम्) = शिखर को (वि अभिनद्) = विशेषरूप से विदीर्ण कर देता है। ज्ञान अल्प हो तो वासना से आवृत्त होकर समाप्त हो जाता है, परन्तु ज्ञानसमुद्र में वासना का ही विलय हो जाता है। प्रचण्ड ज्ञानाग्नि में वासना भस्म हो जाती है। २. यह इन्द्र अहिम ज्ञान को नष्ट करनेवाली वासना को (आहन्) = नष्ट कर देता है और (सप्त सिन्धूम्) = सप्तर्षियों से प्रवाहित होनेवाले सात ज्ञान नदियों को [कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्] (अरिणात्) = गतिमय करता है। वासना के विनाश से ज्ञान-प्रवाह ठीक से होने लगता है। इस ज्ञान का प्रवाह होने पर (द्यावापृथिवी) = ज्ञानदीप्त मस्तिष्करूप द्युलोक तथा दृढ़ शरीररूप पृथिवी-ये दोनों (देवै:) = दिव्यगुणों के द्वारा (न:) = हमें (प्रावतम्) = प्रकर्षेण रक्षित व प्रीणित करनेवाले हों। दीप्त मस्तिष्क व शरीर के दृढ़ होने पर हममें दिव्य गुणों का विकास हो। ज्ञान के अभाव में दिव्यगणों के विकास का प्रश्न ही नहीं पैदा होता और अस्वस्थ शरीर में भी चिड़चिड़ापन व क्रोध आदि की वृत्ति आ जाती है।

    भावार्थ - ज्ञानवृद्धि से हम वासना का उन्मूलन करके ज्ञानप्रवाहों को और अधिक प्रवाहित करनेवाले हों। इसप्रकार स्वस्थ शरीर व दीस मस्तिष्क से हम दिव्यगुणों का विकास करें। यह ज्ञान की रुचिवाला 'प्रियमेध' अगले सूक्त में १-१५ तक मन्त्रों का ऋषि है। १६ २१ तक 'पुरुहन्मा' ऋषि है-अच्छी तरह वासनारूप शत्रुओं का हनन करनेवाला। प्रियमेध कहता है कि -

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