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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
    सूक्त - उद्दालकः देवता - शितिपाद् अविः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अवि सूक्त

    सर्वा॒न्कामा॑न्पूरयत्या॒भव॑न्प्र॒भव॒न्भव॑न्। आ॑कूति॒प्रोऽवि॑र्द॒त्तः शि॑ति॒पान्नोप॑ दस्यति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सर्वा॑न् । कामा॑न् । पू॒र॒य॒ति॒ । आ॒ऽभव॑न् । प्र॒ऽभव॑न् । भव॑न् । आ॒कू॒ति॒ऽप्र: । अवि॑: । द॒त्त: । शि॒ति॒ऽपात् । न । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ ॥२९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सर्वान्कामान्पूरयत्याभवन्प्रभवन्भवन्। आकूतिप्रोऽविर्दत्तः शितिपान्नोप दस्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सर्वान् । कामान् । पूरयति । आऽभवन् । प्रऽभवन् । भवन् । आकूतिऽप्र: । अवि: । दत्त: । शितिऽपात् । न । उप । दस्यति ॥२९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (दत्त:) = जिस राजा के लिए प्रजा से कर व पुण्य का सोलहवाँ भाग दिया गया है, वह राजा (अविः) = प्रजा का रक्षक होता है। (सर्वान् कामान् पूरयति) = बह प्रजा की सब कामनाओं को पूर्ण करता है। यह (आभवन्) = प्रजा में चारों ओर होता है, अर्थात् प्रजा में व्याप्त रहता है, सदा प्रजा में घूमता है, (प्रभवन्) = शक्तिशाली होता है, (भवन्) = वर्धिष्णु होता है। २. यह (आकूति प्र:) = प्रजाओं के संकल्पों का पूर्ण करनेवाला होता है। यह (शितिपात्) = शुद्ध आचरणवाला व्यसनों में न फंसनेवाला राजा (न उपदस्यति) = अपने प्रजारूप शरीर को नष्ट नहीं होने देता।

    भावार्थ -

    प्रजा से कर प्राप्त करनेवाला यह राजा प्रजा में व्यातिवाला बनता है, शक्तिशाली होता है, प्रजा का वर्धन करता है तथा प्रजा की कामनाओं को पूर्ण करता है और प्रजा को नष्ट नहीं होने देता।

     

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