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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 6
    सूक्त - उद्दालकः देवता - शितिपाद् अविः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अवि सूक्त

    इरे॑व॒ नोप॑ दस्यति समु॒द्र इ॑व॒ पयो॑ म॒हत्। दे॒वौ स॑वा॒सिना॑विव शिति॒पान्नोप॑ दस्यति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इरा॑ऽइव । न । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ । स॒मु॒द्र:ऽइ॑व । पय॑: । म॒हत् । दे॒वौ । स॒वा॒सिनौ॑ऽइव । शि॒ति॒ऽपात् । न । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ ॥२९.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इरेव नोप दस्यति समुद्र इव पयो महत्। देवौ सवासिनाविव शितिपान्नोप दस्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इराऽइव । न । उप । दस्यति । समुद्र:ऽइव । पय: । महत् । देवौ । सवासिनौऽइव । शितिऽपात् । न । उप । दस्यति ॥२९.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. (इरा इव) = इस भूमि के समान (शितिपात्) = शुद्ध आचरणवाला राजा (न उपदस्यति) = प्रजा का कभी क्षय नहीं करता। भूमि माता के समान सदा अन्नों को देनेवाली है। इसीप्रकार राजा प्रजा को कभी अन्नाभाव से मृत नहीं होने देता। २.यह सदाचारी राजा (समुद्रः इव) = समुद्र के समान (महत् पय:) = महान् जल-राशि है। समुद्र का जल क्षीण नहीं होता। इस राजा का कोश भी सदा परिपूर्ण रहता है। ३. (सवासिनौ) = सदा साथ रहनेवाले (देवौ इव) = प्राणापानरूप अश्विनीदेवों के समान यह राजा है। यह प्रजा में प्राणशक्ति का सञ्चार करता है, प्रजा से मलिनताओं को दूर करता है। इसप्रकार यह (शितिपात्) = राजा (न उपदस्थति) = प्रजा का क्षय नहीं करता।

    भावार्थ -

    राजा प्रजा के लिए अन्नाभाव नहीं होने देता। यह अपने कोष को क्षीण नहीं होने देता। यह प्रजा में प्राणशक्ति का सञ्चार करता हुआ सब मलिनताओं को दूर करता है।

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