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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 8
    सूक्त - उद्दालकः देवता - भूमिः छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - अवि सूक्त

    भूमि॑ष्ट्वा॒ प्रति॑ गृह्णात्व॒न्तरि॑क्षमि॒दं म॒हत्। माहं प्रा॒णेन॒ मात्मना॒ मा प्र॒जया॑ प्रति॒गृह्य॒ वि रा॑धिषि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूमि॑: । त्वा॒ । प्रति॑ । गृ॒ह्णा॒तु॒ । अ॒न्तरि॑क्षम् । इ॒दम् । म॒हत् । मा । अ॒हम् । प्रा॒णेन॑ । मा । आ॒त्मना॑ । मा । प्र॒ऽजया॑ । प्र॒ति॒ऽगृह्य॑ । वि । रा॒धि॒षि॒ ॥२९.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूमिष्ट्वा प्रति गृह्णात्वन्तरिक्षमिदं महत्। माहं प्राणेन मात्मना मा प्रजया प्रतिगृह्य वि राधिषि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भूमि: । त्वा । प्रति । गृह्णातु । अन्तरिक्षम् । इदम् । महत् । मा । अहम् । प्राणेन । मा । आत्मना । मा । प्रऽजया । प्रतिऽगृह्य । वि । राधिषि ॥२९.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 8

    पदार्थ -

    १. हे कररूप द्रव्य! भूमिः त्वा प्रतिगृहात-यह भूमि तेरा ग्रहण करे । राजा राष्ट्र की रक्षा व राष्ट्र में कृषि आदि कार्यों की उन्नति के लिए कर ग्रहण करे। कर से प्राप्त धन का इन्हीं कार्यों में विनियोग करे। २. (इदम्) = यह (महत् अन्तरिक्षम्) = महान् अन्तरिक्ष तेरा ग्रहण करे। कर से प्राप्त धन का विनियोग विस्तृत अन्तरिक्ष को उत्तम बनाने में किया जाए। 'राष्ट्र का सारा वातावरण उत्तम बने', ऐसा राजा का प्रयत्न होना चाहिए। राष्ट्र के शिक्षणालय युवकों के आचार को उत्तम बनाने का ध्यान करें। राष्ट्र में होनेवाले यज्ञ सब प्राकृतिक देवों की अनुकूलता को सिद्ध करें। ३. राजा कहता है कि (अहम्) = मैं (प्रतिगृह्य) = कामरूप में धन लेकर (प्राणेन मा विराधिषि) = प्राणों से वर्जित न हो जाऊँ, भोगों में फँसकर प्राणशक्ति को ही नष्ट न कर लें। (मा आत्मना) = मैं भोग-प्रवण होकर आत्मतत्त्व को न भूल जाऊँ, (मा प्रजया) = मैं प्रजा से दूर न हो जाऊँ, सदा प्रजाहित में लगा रहूँ।

    भावार्थ -

    कररूप धनों का विनियोग राष्ट्रभूमि को उन्नत करने व राष्ट्र के वातावरण को अच्छा बनाने में करना चाहिए। राजा धनों का विनियोग भोग-विलास में करके अपनी प्राणशक्ति को क्षीण न कर ले। वह आत्मतत्त्व से दूर न हो जाए। भोग-प्रवण राजा तो प्रजा से दूर और दूर होता जाता है। इसे प्रजाहित की कामना नहीं रहती।

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