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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 29

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
    सूक्त - उद्दालकः देवता - शितिपाद् अविः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अवि सूक्त

    पञ्चा॑पूपं शिति॒पाद॒मविं॑ लो॒केन॒ संमि॑तम्। प्र॑दा॒तोप॑ जीवति सूर्यामा॒सयो॒रक्षि॑तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पञ्च॑ऽअपूपम् । शि॒ति॒ऽपाद॑म् । अवि॑म् । लो॒केन॑ । सम्ऽमि॑तम् । प्र॒ऽदा॒ता । उप॑ । जी॒व॒ति॒ । सू॒र्या॒मा॒सयो॑: । अक्षि॑तम्॥२९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पञ्चापूपं शितिपादमविं लोकेन संमितम्। प्रदातोप जीवति सूर्यामासयोरक्षितम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पञ्चऽअपूपम् । शितिऽपादम् । अविम् । लोकेन । सम्ऽमितम् । प्रऽदाता । उप । जीवति । सूर्यामासयो: । अक्षितम्॥२९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (पञ्चापूपम) = पाँचों दिशाओं [पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण व मध्य] में स्थित प्रजावर्ग को विशीर्ण न होने देनेवाले (शितिपादम्) = शुद्ध आचरणवाले (अविम्) = रक्षक राजा को (लोकेन संमितम्) = लोकों के प्रतिनिधियों से राष्ट्रसभा में निर्धारित कर का (प्रदाता) = देनेवाला प्रजावर्ग (सूर्यामासयो:) = सूर्य-चन्द्रमा के लोक में [मस्यते क्षयवृद्धिभ्यां परिमीयते इति मासः चन्द्रमाः], (अक्षितम्) = अक्षीणता के साथ (उपजीवति) = निवास करता है, अर्थात् दिन-रात फूलता-फलता है। २. प्रजा जब राजा को ठीक से कर देती रहती है तब राजा दिन-रात प्रजा का रक्षण करता है। प्रजा दिन में निर्भय होकर अपने व्यापार आदि कर्मों को करती है और रात्रि में निर्भयता से विश्राम करती है। राजा 'जागवि' है-सदा जागरूक होकर प्रजा का रक्षण करता है।

    भावार्थ -

    राजा के लिए निश्चित कर देनेवाली प्रजा दिन-रात राजा से सुरक्षित हुई-हुई दिन में अपने-अपने कार्यों को करती हुई रात्रि में निर्भयता से विश्राम करती है।

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