अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - शङ्खमणिः, कृशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त
श॒ङ्खेनामी॑वा॒मम॑तिं श॒ङ्खेनो॒त स॒दान्वाः॑। श॒ङ्खो नो॑ वि॒श्वभे॑षजः॒ कृश॑नः पा॒त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठश॒ङ्खेन॑ । अमी॑वाम् । अम॑तिम् । श॒ङ्खेन॑ । उ॒त । स॒दान्वा॑: । श॒ङ्ख: । न॒: । वि॒श्वऽभे॑षज: । कृश॑न: । पा॒तु॒ । अंह॑स: ॥१०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
शङ्खेनामीवाममतिं शङ्खेनोत सदान्वाः। शङ्खो नो विश्वभेषजः कृशनः पात्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठशङ्खेन । अमीवाम् । अमतिम् । शङ्खेन । उत । सदान्वा: । शङ्ख: । न: । विश्वऽभेषज: । कृशन: । पातु । अंहस: ॥१०.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 3
विषय - प्रभु'विश्वभेषज' हैं
पदार्थ -
१. (शङ्खेन) = इन्द्रियों की शान्ति देनेवाले प्रभु के द्वारा हम (अमीवाम्) = सब रोगों को अभिभूत करते हैं। अजितेन्द्रियता में ही खान-पान का संयम न रहने से रोग पनपते हैं। इस शङ्क के द्वारा ही (अमतिम्) = सब अनर्थों के मूल अज्ञान को दूर करते हैं (उत) = और (शङ्खेन) = इन्द्रियों की शान्ति देनेवाले प्रभु की उपासना से ही (सदान्वाः) = [सदा नोनूयमानाः] सदा पीड़ित करनेवाली [रुलानेवाली] अलक्ष्मियों को दूर करते हैं। २. यह शल-इन्द्रियों को शान्ति देनेवाले प्रभु (न:) = हमारे लिए (विश्वभेषज:) = सब रोगों के औषध हैं, (कृशन:) = सब क्लेशों को क्षीण करनेवाले हैं। ये प्रभु हमें (अंहसः पातु) = पाप से रक्षित करें।
भावार्थ -
प्रभु की उपासना हमें रोगों से बचाती है, हमारे अज्ञान को दूर करती है, अलक्ष्मी का विनाश करती है। प्रभु की उपासना सब रोगों का औषध है।