Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 10

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 2
    सूक्त - अथर्वा देवता - शङ्खमणिः, कृशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त

    यो अ॑ग्र॒तो रो॑च॒नानां॑ समु॒द्रादधि॑ जज्ञि॒षे। श॒ङ्खेन॑ ह॒त्वा रक्षां॑स्य॒त्त्रिणो॒ वि ष॑हामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒ग्र॒त: । रो॒च॒नाना॑म् । स॒मु॒द्रात् । अधि॑ । ज॒ज्ञि॒षे । श॒ङ्खेन॑ । ह॒त्वा । रक्षां॑सि । अ॒त्त्रिण॑: । वि । स॒हा॒म॒हे॒ ॥१०.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अग्रतो रोचनानां समुद्रादधि जज्ञिषे। शङ्खेन हत्वा रक्षांस्यत्त्रिणो वि षहामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अग्रत: । रोचनानाम् । समुद्रात् । अधि । जज्ञिषे । शङ्खेन । हत्वा । रक्षांसि । अत्त्रिण: । वि । सहामहे ॥१०.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 2

    पदार्थ -

    १. (य:) = जो प्रभु (रोचनानाम् अग्रत:) = देदीप्यमान पदार्थों में सर्वाग्रणी हैं, वे प्रभु (समुद्रात् अधि जज्ञिषे) = [समुद्र] प्रसन्नता युक्त मन से प्रादुर्भूत होते हैं। मनःप्रसाद होने पर हृदय में प्रभु का प्रकाश होता है। प्रभु के प्रकाश से ही सब पिण्ड चमक रहे हैं-('तस्य भासा सर्वमिदं विभाति') २. हृदय में प्रादुर्भूत हुए-हुए इस (शंखेन) = इन्द्रियों को शान्ति देनेवाले प्रभु से (रक्षांसि) = सब राक्षसी भाबों को (हत्वा) = विनष्ट करके (अत्त्रि) = हमें खा जानेवाले रोगकृमियों को भी (विषहामहे) = विशेषेण अभिभूत करते हैं। रक्षोहनन द्वारा मानस स्वास्थ्य सिद्ध होता है और अत्रि-विध्वंस द्वारा शरीर नीरोग बनता है।

    भावार्थ -

    प्रसन्न हृदय में उस ज्योतिर्मय प्रकाश को देखते हुए हम राक्षसी वृत्तियों का विध्वंस करके स्वस्थ मन बनें और रोगकृमियों का पराभव करते हुए हमारे शरीर स्वस्थ हों।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top