अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
सूक्त - अथर्वा
देवता - शङ्खमणिः, कृशनः
छन्दः - पञ्चपदा परानुष्टुब्विराट्शक्वरी
सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त
दे॒वाना॒मस्थि॒ कृश॑नं बभूव॒ तदा॑त्म॒न्वच्च॑रत्य॒प्स्वन्तः। तत्ते॑ बध्ना॒म्यायु॑षे॒ वर्च॑से॒ बला॑य दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय कार्श॒नस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वाना॑म् । अस्थि॑ । कृश॑नम् । ब॒भू॒व॒ । तत् । आ॒त्म॒न्ऽवत् । च॒र॒ति॒ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । तत् । ते॒ । ब॒ध्ना॒मि॒ । आयु॑षे । वर्च॑से । बला॑य । दी॒र्घा॒यु॒ऽत्वाय॑ । श॒तऽशा॑रदाय । का॒र्श॒न: । त्वा॒ । अ॒भि । र॒क्ष॒तु॒ ॥१०.७॥
स्वर रहित मन्त्र
देवानामस्थि कृशनं बभूव तदात्मन्वच्चरत्यप्स्वन्तः। तत्ते बध्नाम्यायुषे वर्चसे बलाय दीर्घायुत्वाय शतशारदाय कार्शनस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठदेवानाम् । अस्थि । कृशनम् । बभूव । तत् । आत्मन्ऽवत् । चरति । अप्ऽसु । अन्त: । तत् । ते । बध्नामि । आयुषे । वर्चसे । बलाय । दीर्घायुऽत्वाय । शतऽशारदाय । कार्शन: । त्वा । अभि । रक्षतु ॥१०.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
विषय - आत्मन्वत्
पदार्थ -
१. (कृशनम्) = सब क्लेशों को क्षीण करनेवाला वह प्रभु (देवानाम्) = सब देवों के (अस्थि) = [अस्यति] मलों को दूर करनेवाला (बभूव) = है। वस्तुतः उसी ने इन्हें निर्मल बनाकर देवत्व प्राप्त कराया है। (तत्) = वह (कृशन आत्मन्वत्) = सब आत्माओंवाला है-सब आत्माओं का निवास उस प्रभु में ही है। वह (अप्सु अन्त:) = सब प्रजाओं के अन्दर (चरति) = विचरण करता है। वह सर्वभूतात्मा है। २. (तत्) = उस प्रभु को (ते बध्नामि) = मैं तेरे हृदय में बाँधता हूँ-तुझे सदा प्रभु का स्मरण रहे। यही मार्ग है (आयुषे) = दीर्घायुष्य की प्राप्ति के लिए, (वर्चसे) = रोगनिवारक शक्ति की प्राप्ति के लिए, (बलाय) = मानस बल प्राप्ति के लिए तथा (शतशारदाय दीर्घायुत्वाय) = सौ वर्ष के दीर्घजीवन के लिए। (कार्शन:) = वासनाओं को अतिशयेन क्षीण करनेवाला वह प्रभु (त्वा अभिरक्षतु) = तेरा रक्षण करे। प्रभु से रक्षित होकर ही हम पवित्र व दीर्घजीवन प्राप्त करते हैं।
भावार्थ -
प्रभु ही हमारे जीवनों को निर्मल बनाकर हमें देवत्व प्राप्त कराते हैं। प्रभु हम सबकी आत्मा हैं। वे हम सबके अन्दर विचरण करते हैं। प्रभु ही हमें पवित्र व सबल दीर्घजीवन देते हैं
विशेष -
प्रभु के अनुग्रह से तपस्वी जीवनवाला 'भृगु' अगले सूक्त का ऋषि है। सबल शरीरवाला, अङ्ग-अङ्ग में रसवाला यह 'अङ्गिराः' है। यह प्रभु को संसार-शकट को वहन करनेवाले अनडान् के रूप में देखता है।