अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 5
सूक्त - अथर्वा
देवता - शङ्खमणिः, कृशनः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शङ्खमणि सूक्त
स॑मु॒द्राज्जा॒तो म॒णिर्वृ॒त्राज्जा॒तो दि॑वाक॒रः। सो अ॒स्मान्त्स॒र्वतः॑ पातु हे॒त्या दे॑वासु॒रेभ्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मु॒द्रात् । जा॒त: । म॒णि: । वृ॒त्रात् । जा॒त: । दि॒वा॒ऽक॒र: । स: । अ॒स्मान् । स॒र्वत॑: । पा॒तु॒ । हे॒त्या: । दे॒व॒ऽअ॒सु॒रेभ्य॑: ॥१०.५॥
स्वर रहित मन्त्र
समुद्राज्जातो मणिर्वृत्राज्जातो दिवाकरः। सो अस्मान्त्सर्वतः पातु हेत्या देवासुरेभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठसमुद्रात् । जात: । मणि: । वृत्रात् । जात: । दिवाऽकर: । स: । अस्मान् । सर्वत: । पातु । हेत्या: । देवऽअसुरेभ्य: ॥१०.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 5
विषय - वृत्रात् जात: दिवाकरः
पदार्थ -
१. (समुद्रात्) = अन्तरिक्ष से [समुद्रम्-अन्तरिक्षम्-निरु०] (जात:) = प्रादुर्भूत हुआ-हुआ [अन्तरिक्ष में सर्वत्र प्रभु की महिमा का प्रकाश होता ही है] अथवा [स+मुद्] प्रसादमय हृदयान्तरिक्ष में प्रकट हुआ-हुआ (मणि:) = धर्म की प्रेरणा देनेवाले प्रभु इसप्रकार देदीप्यमान होते हैं, जैसेकि (वृत्रात्) = आवरक मेघ से (जात:) = प्रादुर्भूत हुआ-हुआ (दिवाकरः) = सूर्य। मेघ के आवरण के हटने पर जैसे सूर्य चमक उठता है, उसी प्रकार वासना के आवरण के हटने पर हृदय में प्रभु का प्रकाश चमक उठता है। २. (सः) = वह प्रभु (अस्मान्) = हमें (सर्वतः पातुः) = सब ओर से रक्षित करें। (हेत्या) = हनन की प्रवृत्तियों से वे प्रभु हमें बचाएँ। हम हिंसक वृत्तिवाले न बन जाएँ। देवासुरेभ्यः-[देवान् अस्यन्ति] दिव्यभावों को दूर फेंकनेवाले आसुरीभावों से भी वे प्रभु हमें बचाएँ। प्रभु से दूर होने पर जीवन में घात-पात की प्रवृत्तियों प्रबल हो उठती है।
भावार्थ -
प्रभु सूर्य के समान चमकते हैं। जब हृदय से वासना के मेघ का विलय हो जाता है तब प्रभु हमें पापों, हिंसाओं व आसुरी प्रवृत्तियों से बचाते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें