अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 23/ मन्त्र 1
सूक्त - मृगारः
देवता - प्रचेता अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
अ॒ग्नेर्म॑न्वे प्रथ॒मस्य॒ प्रचे॑तसः॒ पाञ्च॑जन्यस्य बहु॒धा यमि॒न्धते॑। विशो॑विशः प्रविशि॒वांस॑मीमहे॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्ने: । म॒न्वे॒ । प्र॒थ॒मस्य॑ । प्रऽचे॑तस: । पाञ्च॑ऽजन्यस्य । ब॒हु॒ऽधा । यम् । इ॒न्धते॑ । विश॑:ऽविश: । प्र॒वि॒शि॒ऽवास॑म् । ई॒म॒हे॒ । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्नेर्मन्वे प्रथमस्य प्रचेतसः पाञ्चजन्यस्य बहुधा यमिन्धते। विशोविशः प्रविशिवांसमीमहे स नो मुञ्चत्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने: । मन्वे । प्रथमस्य । प्रऽचेतस: । पाञ्चऽजन्यस्य । बहुऽधा । यम् । इन्धते । विश:ऽविश: । प्रविशिऽवासम् । ईमहे । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 1
विषय - 'प्रथम-प्रचेता-पाञ्चजन्य' प्रभु
पदार्थ -
१. मैं (अग्नेः) = उस अग्रणी प्रभु का (मन्वे) = मनन व चिन्तन करता हूँ जोकि (प्रथमस्य) = सर्वमुख्य व सर्वव्यापक हैं [प्रथ विस्तारे], (प्रचेतसः) = प्रकृष्ट ज्ञानवाले–सर्वज्ञ हैं और (पाजन्यस्य) = पञ्चजनों का हित करनेवाले हैं। 'पञ्च यज्ञशील जन' पञ्चजन हैं। ये प्रभु को सदा प्रिय होते हैं। उस प्रभु का मैं मनन करता हूँ (यम्) = जिसे (बहुधा) = अनेक प्रकार से-नानाविध यत्नों से (इन्धते) = साधक लोग अपने हृदयदेश में दीस करते हैं। २. (विशः विश: प्रविशिवांसम्) = सब प्रजाओं में प्रविष्ट हुए-हुए उस प्रभु को (ईमहे) = हम प्रार्थित करते हैं। (सः) = वे प्रभु (न:) = हमें (अंहसः) = सब अनर्थों के कारण पाप से (मुञ्चतु) = मुक्त करें-वे प्रभु हमें पापों से छुड़ाएँ।
भावार्थ -
हम उस प्रभु का स्मरण करें जोकि 'अग्नि, प्रथम, प्रचेता व पाञ्चजन्य' हैं। हम सबके अन्दर वे प्रभु रह रहे हैं। उन्हीं से हम आराधना करते हैं कि वे हमें पापों से मुक्त करें।
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