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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 23

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 23/ मन्त्र 3
    सूक्त - मृगारः देवता - प्रचेता अग्निः छन्दः - पुरस्ताज्ज्योतिष्मती त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    याम॑न्याम॒न्नुप॑युक्तं॒ वहि॑ष्ठं॒ कर्म॑ङ्कर्म॒न्नाभ॑गम॒ग्निमी॑डे। र॑क्षो॒हणं॑ यज्ञ॒वृधं॑ घृ॒ताहु॑तं॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम॑न्ऽयामन् । उप॑ऽयुक्तम् । वहि॑ष्ठम् । कर्म॑न्ऽकर्मन् । आऽभ॑गम् । अ॒ग्निम् । ई॒डे॒ । र॒क्ष॒:ऽहन॑म् । य॒ज्ञ॒ऽवृध॑म् । घृ॒तऽआ॑हुतम् । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यामन्यामन्नुपयुक्तं वहिष्ठं कर्मङ्कर्मन्नाभगमग्निमीडे। रक्षोहणं यज्ञवृधं घृताहुतं स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यामन्ऽयामन् । उपऽयुक्तम् । वहिष्ठम् । कर्मन्ऽकर्मन् । आऽभगम् । अग्निम् । ईडे । रक्ष:ऽहनम् । यज्ञऽवृधम् । घृतऽआहुतम् । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (यामन् यामन्) = जीवन के प्रत्येक मार्ग में ज्ञान-भक्ति व कर्मप्रधान सभी मार्गों में (उपयुक्तम्) = उपयुक्त, अर्थात् ज्ञानियों को ज्ञान प्राप्त करानेवाले, भक्तों की वृत्ति को उत्तम बनानेवाले व यज्ञादि कर्मों को सिद्ध करनेवाले उस (वहिष्ठम्) = वोढ़तम-लक्ष्य-स्थान तक पहुँचानेवाले, (कर्मन् कर्मन्) = प्रत्येक कर्म में (आभगम्) = उपासनीय, अर्थात् कर्मों के द्वारा ही जिसकी उपासना होती है, उस (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (ईडे) = मैं उपासित करता हूँ। २. उस प्रभु की उपासना करता हूँ जोकि (रक्षोहणम्) = राक्षसी वृत्तियों का संहार करनेवाले हैं, (यज्ञवृधम्) = हमारे यज्ञों का वर्धन करनेवाले हैं और (घृताहुतम्) = [घृ दीसौ] ज्ञान-दीसियों द्वारा हदयदेश में आहुत [दीस] होते हैं। सब यज्ञ प्रभु द्वारा ही पूर्ण किये जाते हैं तथा ज्ञानाग्नि को दीस करने पर ही प्रभु का हृदय में दर्शन होता है। (स:) = वे प्रभु (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतु) = मुक्त करें।

    भावार्थ -

    प्रभुकृपा से ही हमें सर्वत्र सफलता मिलती है, प्रभु ही हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचाते हैं, ये प्रभु ही हमारे कर्मों को पूर्ण करते हैं, राक्षसी वृत्तियों को नष्ट करके प्रभु ही हममें यज्ञों का वर्धन करते हैं। ज्ञान-दीप्ति से हृदय में घोतित ये प्रभु हमें पापों से मुक्त करें।

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