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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 23

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 23/ मन्त्र 5
    सूक्त - मृगारः देवता - प्रचेता अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    येन॒ ऋष॑यो ब॒लमद्यो॑तयन्यु॒जा येनासु॑राणा॒मयु॑वन्त मा॒याः। येना॒ग्निना॑ प॒णीनिन्द्रो॑ जि॒गाय॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । ऋष॑य: । ब॒लम् । अद्यो॑तयन् । यु॒जा । येन॑ । असु॑राणाम् । अयु॑वन्त । मा॒या: । येन॑ । अ॒ग्निना॑ । प॒णीन् । इन्द्र॑: । जि॒गाय॑ । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२३.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येन ऋषयो बलमद्योतयन्युजा येनासुराणामयुवन्त मायाः। येनाग्निना पणीनिन्द्रो जिगाय स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । ऋषय: । बलम् । अद्योतयन् । युजा । येन । असुराणाम् । अयुवन्त । माया: । येन । अग्निना । पणीन् । इन्द्र: । जिगाय । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२३.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. (येन युजा) = जिस मित्र के द्वारा-जिससे युक्त होकर (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा लोग (बलम् अद्योतयन्) = अपने बल को घोतित करते हैं और (येन) = जिसके द्वारा (असुराणाम्) = असुर वृत्तियों की (मायाः) = व्यामोहन शक्तियों को (अयुवन्त) = देव लोग अपने से पृथक् करते हैं और (येन अग्निना) = जिस अग्रणी प्रभु के द्वारा (इन्द्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष (पणीन् जिगाय) = वणिक् वृत्तियों को कृपणता के भावों को जीतता है, (स:) = वे प्रभु (नः) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतु) = मुक्त करें।

    भावार्थ -

    प्रभु मित्रता में बल की वृद्धि होती है, असुरभाव हमें मोहित नहीं कर पाते, हम कार्पण्य से दूर रहते हैं। इसप्रकार प्रभु-मित्रता हमें पापों से बचाती है।

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