अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 23/ मन्त्र 6
सूक्त - मृगारः
देवता - प्रचेता अग्निः
छन्दः - प्रस्तारपङ्क्ति
सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
येन॑ दे॒वा अ॒मृत॑म॒न्ववि॑न्द॒न्येनौष॑धी॒र्मधु॑मती॒रकृ॑ण्वन्। येन॑ दे॒वाः स्वराभ॑र॒न्त्स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयेन॑ । दे॒वा: । अ॒मृत॑म् । अ॒नु॒ऽअवि॑न्दन् । येन॑ । ओष॑धी: । मधु॑ऽमती: । अकृ॑ण्वन् । येन॑ । दे॒वा: । स्व᳡: । आ॒ऽअभ॑रन् । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
येन देवा अमृतमन्वविन्दन्येनौषधीर्मधुमतीरकृण्वन्। येन देवाः स्वराभरन्त्स नो मुञ्चत्वंहसः ॥
स्वर रहित पद पाठयेन । देवा: । अमृतम् । अनुऽअविन्दन् । येन । ओषधी: । मधुऽमती: । अकृण्वन् । येन । देवा: । स्व: । आऽअभरन् । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 6
विषय - नीरोगता, माधुर्य, प्रकाश
पदार्थ -
१. (येन) = जिस प्रभु के द्वारा (देवा:) = देववृत्ति के लोग (अमृतम्) = पूर्ण नीरोगता को (अन्यविन्दन्) = क्रमश: प्राप्त करते हैं, (येन) = जिसके द्वारा (ओषधी:) = सब ओषधियों, वनस्पतियों को (मधुमती अकृण्वन्) = अत्यन्त माधुर्यवाला कर लेते हैं। प्रभु की उपासना होने पर मनुष्यों की वृत्तियाँ उत्तम बनती हैं तब आधिदैविक कष्ट नहीं होते। वृष्टि आदि के ठीक होने से सब ओषधियाँ मधुर रसयुक्त होती हैं। (येन) = जिसके द्वारा (देवा:) = देववृत्ति के पुरुष (स्व:) = अपने हृदय में प्रकाश को (आभरन्) = भरते हैं, (स:) = वे प्रभु (न:) = हमें (अंहसः) = पाप से (मुञ्चतु) = मुक्त करें।
भावार्थ -
प्रभु की मित्रता में देव नीरोगता प्राप्त करते हैं, ओषधियों को माधुर्ययुक्त कर पाते हैं और अपने हृदयों में प्रकाश पाते हैं। ये प्रभु हमें भी पापों से मुक्त करें।
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