Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 56

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 56/ मन्त्र 3
    सूक्त - अथर्वा देवता - वृश्चिकादयः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषभेषज्य सूक्त

    यतो॑ द॒ष्टं यतो॑ धी॒तं तत॑स्ते॒ निर्ह्व॑यामसि। अ॒र्भस्य॑ तृप्रदं॒शिनो॑ म॒शक॑स्यार॒सं वि॒षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत॑: । द॒ष्टम् । यत॑: । धी॒तम् । तत॑: । ते॒ । नि: । ह्व॒या॒म॒सि॒ । अ॒र्भस्य॑ । तृ॒प्र॒ऽदं॒शिन॑: । म॒शक॑स्य । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥५८.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यतो दष्टं यतो धीतं ततस्ते निर्ह्वयामसि। अर्भस्य तृप्रदंशिनो मशकस्यारसं विषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत: । दष्टम् । यत: । धीतम् । तत: । ते । नि: । ह्वयामसि । अर्भस्य । तृप्रऽदंशिन: । मशकस्य । अरसम् । विषम् ॥५८.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 56; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. विष-दष्ट पुरुष को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि (यतः दष्टम्) = जिस स्थान में सादि से डसा गया है, (यतः धीतम्) = जिस स्थान में सादि से रुधिर पिया गया है। हे सर्पदष्ट पुरुष! (तत्) = वहाँ से (ते) = तेरे इस विष को (निर्ह्रयामसि) = पुकार कर बाहर करते हैं। २. इस (अर्भस्य) = छोटे से (तप्रदंशिन:) = शीघ्रता से काटनेवाले व तीव्रता से काटनेवाले (मशकस्य) = मच्छर का (विषं अरसम्) = विष तो निवीर्य ही है [शंगारादौ रसे वीर्य गुणे रागे द्रवे रस:] इस विष को दूर करना कठिन है ही नहीं।

    भावार्थ -

    जहाँ सर्प काटता है और रुधिर पीता है, उस अंग से हम विष को पुकार कर बाहर करते हैं। इस छोटे-से तीव्रता से काटनेवाले मच्छर का विष तो निर्वीर्य ही है।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top