अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 56/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - वृश्चिकादयः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - विषभेषज्य सूक्त
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यतो॑ द॒ष्टं यतो॑ धी॒तं तत॑स्ते॒ निर्ह्व॑यामसि। अ॒र्भस्य॑ तृप्रदं॒शिनो॑ म॒शक॑स्यार॒सं वि॒षम् ॥
स्वर सहित पद पाठयत॑: । द॒ष्टम् । यत॑: । धी॒तम् । तत॑: । ते॒ । नि: । ह्व॒या॒म॒सि॒ । अ॒र्भस्य॑ । तृ॒प्र॒ऽदं॒शिन॑: । म॒शक॑स्य । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥५८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यतो दष्टं यतो धीतं ततस्ते निर्ह्वयामसि। अर्भस्य तृप्रदंशिनो मशकस्यारसं विषम् ॥
स्वर रहित पद पाठयत: । दष्टम् । यत: । धीतम् । तत: । ते । नि: । ह्वयामसि । अर्भस्य । तृप्रऽदंशिन: । मशकस्य । अरसम् । विषम् ॥५८.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विष नाश का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (यतः) जहाँ पर (दष्टम्) काटा गया है और (यतः) जहाँ पर (धीतम्) [रुधिर] पिया गया है, (ते) तेरे (ततः) उसी [अङ्ग] से (अर्भस्य) छोटे (तृप्रदंशिनः) तीव्र काटनेवाले (मशकस्य) मच्छर के (अरसम्) निर्बल [किये हुए] (विषम्) विष को (निः) निकालकर (ह्वयामसि) हम वचन देते हैं ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य सुपरीक्षित ओषधियों से प्रयत्नपूर्वक विष आदि रोग नाश करें ॥३॥
टिप्पणी
३−(यतः) सप्तम्यर्थे तसिः। यस्मिन् देशे (दष्टम्) हिंसितम् (यतः) यस्मिन्नङ्गे (धीतम्) धेट् पाने-क्त। रुधिरं पीतम् (ततः) तस्मादङ्गात् (ते) तव (निः) निःसार्य (ह्वयामसि) कथयामः (अर्भस्य) अल्पस्य (तृप्रदंशिनः) तृप संदीपने प्रीणने च-रक्+दंश दंशने-णिनि। तीव्रदंशनशीलस्य (मशकस्य) मश ध्वनौ कोपे च−वुन्। कीटभेदस्य (अरसम्) निर्बलं कृतम् (विषम्) ॥
विषय
सर्पविष-निराकरण
पदार्थ
१. विष-दष्ट पुरुष को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि (यतः दष्टम्) = जिस स्थान में सादि से डसा गया है, (यतः धीतम्) = जिस स्थान में सादि से रुधिर पिया गया है। हे सर्पदष्ट पुरुष! (तत्) = वहाँ से (ते) = तेरे इस विष को (निर्ह्रयामसि) = पुकार कर बाहर करते हैं। २. इस (अर्भस्य) = छोटे से (तप्रदंशिन:) = शीघ्रता से काटनेवाले व तीव्रता से काटनेवाले (मशकस्य) = मच्छर का (विषं अरसम्) = विष तो निवीर्य ही है [शंगारादौ रसे वीर्य गुणे रागे द्रवे रस:] इस विष को दूर करना कठिन है ही नहीं।
भावार्थ
जहाँ सर्प काटता है और रुधिर पीता है, उस अंग से हम विष को पुकार कर बाहर करते हैं। इस छोटे-से तीव्रता से काटनेवाले मच्छर का विष तो निर्वीर्य ही है।
भाषार्थ
(यतः) जिस स्थान में (दष्टम्) मच्छर ने डसा है, (यतः) जिस स्थान से (धीतम्) उसने रक्त पिया है, (ते) तेरे (ततः) उस स्थान से (निः ह्वयामसि) हम उसके विष को निकाल देते हैं। (अर्भस्य) अल्पकाय (तृप्रदंशिनः) तृप्ति पूर्वक डसने वाले (मशकस्य) मच्छर का (विषम्) विष (अरसम्) नीरस हो जाय।
टिप्पणी
[मन्त्र में मच्छर के काटने का वर्णन है। वह जहां काटता है वहां से रक्त तृप्तिपूर्वक पीता है। वह अर्भक है, अल्पकाय होता है। अतः मन्त्र मे सर्प के काटने का वर्णन नहीं। तृप्र= तृप् तृप्तौ + क्विप् (भावें) +रः मंत्वर्थीयः। धीतम् = धेट् पाने]।
विषय
विषचिकित्सा।
भावार्थ
हे विषार्त्त नाग से काटे हुए पुरुष ! तेरे शरीर में (यतः) जिस स्थान से (दष्टम्) नाग ने या विषैले जीव ने काटा है (यतः) और जिस स्थान से (धीतं) रक्तपान किया है, (ततः) उसी स्थान से हम उसके विष को (निर्ह्वयामसि) बाहर कर दें। इस प्रकार (तृप्र-दंशिनः) भरपेट या अति शीघ्र काट लेने वाले (अर्भस्य) बालक सर्प का और (मशकस्य) मच्छरों का भी (विषं) विष (अरसम्) निर्बल होजाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मन्त्रोक्ताः वृश्चिकादयो देवताः। २ वनस्पतिर्देवता। ४ ब्रह्मणस्पतिर्देवता। १-३, ५-८, अनुष्टुप्। ४ विराट् प्रस्तार पंक्तिः। अष्टर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Poison Cure
Meaning
Where the bite is, from where the blood has been sucked, from there we remove the little smarting mosquito’s poison already rendered ineffective.
Translation
From there, where a sting was inflicted, or from where the blood was sucked, we remove from you the ineffective poison of the tiny hastily-stinging mosquito.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.58.3AS PER THE BOOK
Translation
I, the physician draw away the ineffectual poison of the little shorply-stinging mosquitoes from you wherever it bit or wherever it sucked, O man.
Translation
O patient, in whatever part of the body, thou hast been bitten by the snake, or from where thy blood hath been sucked, thence we drive the poison out. We render ineffectual the poison of the little sharply-stinging gnat.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(यतः) सप्तम्यर्थे तसिः। यस्मिन् देशे (दष्टम्) हिंसितम् (यतः) यस्मिन्नङ्गे (धीतम्) धेट् पाने-क्त। रुधिरं पीतम् (ततः) तस्मादङ्गात् (ते) तव (निः) निःसार्य (ह्वयामसि) कथयामः (अर्भस्य) अल्पस्य (तृप्रदंशिनः) तृप संदीपने प्रीणने च-रक्+दंश दंशने-णिनि। तीव्रदंशनशीलस्य (मशकस्य) मश ध्वनौ कोपे च−वुन्। कीटभेदस्य (अरसम्) निर्बलं कृतम् (विषम्) ॥
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