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अथर्ववेद > काण्ड 7 > सूक्त 93

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  • अथर्ववेद - काण्ड 7/ सूक्त 93/ मन्त्र 1
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    इन्द्रे॑ण म॒न्युना॑ व॒यम॒भि ष्या॑म पृतन्य॒तः। घ्नन्तो॑ वृ॒त्राण्य॑प्र॒ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रे॑ण । म॒न्युना॑ । व॒यम् । अ॒भि । स्या॒म॒ । पृ॒तन्य॒त: । घ्नन्त॑: । वृ॒त्राणि॑ । अ॒प्र॒ति ॥९८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेण मन्युना वयमभि ष्याम पृतन्यतः। घ्नन्तो वृत्राण्यप्रति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रेण । मन्युना । वयम् । अभि । स्याम । पृतन्यत: । घ्नन्त: । वृत्राणि । अप्रति ॥९८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 93; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (मन्युना) ज्ञानदीप्ति विवेक और असह्य तेज प्रताप से युक्त मन्युस्वरूप (इन्द्रेण) राजा के साथ (वयम्) हम, (पृतन्यतः) सेना द्वारा युद्ध करनेहारे शत्रुओं का और (वृत्राणि) सब प्रकार के विघ्नों और उपद्रवों का (अप्रति) सर्वथा, निःशेष रूप से (घ्नन्तः) विनाश करते हुए (अभि स्याम) जीत लें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - भृग्वङ्गिरा ऋषिः। इन्द्रो देवता। गायत्री छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥

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