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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 118/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र॒वद्या॑मना सु॒वृता॒ रथे॑न॒ दस्रा॑वि॒मं शृ॑णुतं॒ श्लोक॒मद्रे॑:। किम॒ङ्ग वां॒ प्रत्यव॑र्तिं॒ गमि॑ष्ठा॒हुर्विप्रा॑सो अश्विना पुरा॒जाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒वत्ऽया॑मना । सु॒ऽवृता॑ । रथे॑न । द॒स्रौ॒ । इ॒मम् । शृ॒णु॒त॒म् । श्लोक॑म् । अद्रेः॑ । किम् । अ॒ङ्ग । वा॒म् । प्रति॑ । अव॑र्तिम् । गमि॑ष्ठा । आ॒हुः । विप्रा॑सः । अ॒श्वि॒ना॒ । पु॒रा॒ऽजाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रवद्यामना सुवृता रथेन दस्राविमं शृणुतं श्लोकमद्रे:। किमङ्ग वां प्रत्यवर्तिं गमिष्ठाहुर्विप्रासो अश्विना पुराजाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रवत्ऽयामना। सुऽवृता। रथेन। दस्रौ। इमम्। शृणुतम्। श्लोकम्। अद्रेः। किम्। अङ्ग। वाम्। प्रति। अवर्तिम्। गमिष्ठा। आहुः। विप्रासः। अश्विना। पुराऽजाः ॥ १.११८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 118; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे प्रवद्यामना सुवृता रथेनाद्रेरुपरि गच्छन्तौ दस्रावश्विना वां युवामिमं श्लोकं शृणुतम्। अङ्ग हे सभासेनेशौ पुराजा विप्रासो गमिष्ठा वां प्रति किमवर्त्तिमाहुः किमपि नेत्यर्थः ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (प्रवद्यामना) प्रकृष्टं याति गच्छति यस्तेन (सुवृता) शोभनैः साधनैः सह वर्त्तमानेन (रथेन) विमानादियानेन (दस्रौ) दातारौ (इमम्) (शृणुतम्) (श्लोकम्) वाचम्। श्लोक इति वाङ्ना०। निघं० १। ११। (अद्रेः) पर्वतस्य (किम्) (अङ्ग) (वाम्) युवाम् (प्रति) (अवर्त्तिम्) अवाच्यम् (गमिष्ठा) अतिशयेन गन्तारौ (आहुः) उपदिशन्ति (विप्रासः) मेधाविनो विद्वांसः (अश्विना) (पुराजाः) पूर्वं जाता वृद्धाः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    हे राजादयः स्त्रीपुरुषा यूयं यद्यदाप्तैरुपदिश्यते तत्तदेव स्वीकुरुत। नहि सत्पुरुषोपदेशमन्तरा जगति जनानामुन्नतिर्जायते, यत्राप्तोपदेशा न प्रवर्त्तन्ते तत्रान्धकारावृताः सन्तः पशुवद्वर्त्तित्वा दुःखं सञ्चिन्वन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (प्रवद्यामना) भली-भाँति चलनेवाले (सुवृता) अच्छे-अच्छे साधनों से युक्त (रथेन) विमान आदि रथ से (अद्रेः) पर्वत के ऊपर जाने और (दस्रौ) दान आदि उत्तम कामों के करनेवाले (अश्विना) सभासेनाधीशो वा हे स्त्री-पुरुषो ! (वाम्) तुम दोनों (इमम्) इस (श्लोकम्) वाणी को (शृणुतम्) सुनो कि (अङ्ग) हे उक्त सज्जनो ! (पुराजाः) अगले वृद्ध (विप्रासः) उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् जन (गमिष्ठा) अति चलते हुए तुम दोनों के (प्रति) प्रति (किम्) किस (अवर्त्तिम्) न वर्त्तने न कहने योग्य निन्दित व्यवहार का (आहुः) उपदेश करते हैं अर्थात् कुछ भी नहीं ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    हे राजा आदि स्त्री-पुरुषो ! तुम जो-जो उत्तम विद्वानों ने उपदेश किया उसी-उसी को स्वीकार करो क्योंकि सत्पुरुषों के उपदेश के विना संसार में मनुष्यों की उन्नति नहीं होती। जहाँ उत्तम विद्वानों के उपदेश नहीं प्रवृत्त होते हैं, वहाँ सब अज्ञानरूपी अंधेरे से ढपे ही होकर पशुओं के समान वर्त्तावकर दुःख को इकट्ठा करते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    ‘सुवृत्’ रथ

    पदार्थ

    १. हे (दस्री) = प्राणसाधकों के मलों व दुःखों को क्षीण करनेवाले प्राणापानो ! (अद्रेः) = आदर व स्तुति करनेवाले के (प्रवद्यामना) = प्रकृष्ट गमनवाले (सुवृता) = शोभन साधनों के साथ वर्तमान , उत्तम इन्द्रिय , मन व बुद्धिवाले रथेन - शरीर - रथ से (इमं श्लोकम्) = इस यशोगान को , स्तुति लक्षणा वाणी को (शृणुतम्) = सुनिए । प्राणायाम करनेवाला व्यक्ति अपने मलों को दूर करके अपने शरीर - रथ को उत्कृष्ट गतिवाला बनाता है । यह कभी भी पाप - मार्ग में नहीं चलता । इसके इन्द्रिय , मन व बुद्धिरूप साधन भी बड़े सुन्दर हो जाते हैं , अतः उसका यह शरीर - रथ ‘सुवृत्’ कहलाता है । प्रभु का स्तवन करनेवाला होने से यह ‘अद्रि’ होता है । इस स्तवन के ही परिणामस्वरूप यह धर्ममार्ग से विचलित नहीं होता [अ+द] इस कारण से भी यह ‘अद्रि’ कहलाता है । इस अद्रि के प्रभुस्तवन को प्राणापान सुनें , अर्थात् यह अपने प्राणों को स्तवन के प्रति अर्पित करनेवाला बने , ‘साम प्राणं प्रपद्ये’ - इसका जीवन स्तवन के प्रति अर्पित हो । २. हे (अङ्ग) = प्रिय ! (अश्विना) = प्राणापानो ! (पुराजाः) = [पृ पालनपूरणयोः , अज गतिक्षेपणयोः] शरीर को दोषों से रक्षित व मन को (पूरित) = न्यूनतारहित करने के लिए गतिवाले (विप्रासः) = मेधावी लोग (वाम्) = आपको (अवर्तिं प्रति) = उस कुत्सित दारिद्र्य के प्रति - जिससे लोक - यात्रा का चलना [वर्तन] सम्भव नहीं रहता (गमिष्ठा) = अतिशयेन आक्रमण करनेवाला (आहुः) = कहते हैं । किम् शब्द यहाँ कुत्सितवाची है । जैसे ‘स किं सखा साधु न शास्ति योऽधिपम्’ में । अवर्ति व दारिद्र्य कुत्सित हैं । ये सब पापों का कारण बन जाया करते हैं - ‘बुभुक्षितः किं न करोति पापम्’ । प्राणसाधना से मनुष्य के सब साधन ठीक हो जाते हैं । उनसे प्रकृष्ट गतिवाला होता हुआ यह जहाँ प्रभु के स्तवन की वृत्तिवाला बनकर अपने निःश्रेयस का साधन करता है , वहाँ उत्तम कर्मों में वर्तता हुआ यह दारिद्र्य को दूर करके इहलौकिक अभ्युदय का भी साधन करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से स्तुति की वृत्ति उत्पन्न होती है और दारिद्र्य दूर होता है ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) विदुषी विद्वान् स्त्री पुरुषो ! ( दस्त्रौ ) दुःखों और दुष्ट पुरुषों के नाश करने वाले ( प्रवद्-यामना ) उत्तम मार्ग से और उत्तम चाल से चलने वाले रथ से ( सुवृता ) उत्तम सुख साधनों से युक्त, ( रथेन ) रथ और रमण साधनों से युक्त होकर भी ( अद्रेः ) पर्वत के समान उत्तम और उन्नत पद पर जाते हुए से भी ( इमं श्लोकं शृणुतम् ) इस वेद वाणी का श्रवण किया करो । ( अङ्ग अश्विना ) हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! ( वां प्रति ) आप दोनों के प्रति ( पुराजाः विप्रासः ) पूर्व काल में उत्पन्न विद्वान, पूर्व पुरुष, ( किम् अवर्त्तिम् आहुः ) क्या कुछ असम्भव, या कुछ निन्दनीय वाणी कहते रहे ? नहीं, कुछ भी नहीं । अथवा—हे स्त्री पुरुषो! तुम ( अद्रेः ) आदर करने योग्य मेघ के समान सर्वदाता, प्रमुख विद्वान् नायक की ( श्लोकं शृणुतम् ) वाणी, गुरुवाणी, वेद या मेघ ध्वनि का श्रवण करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ११ भुरिक् पंक्तिः । २, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा इत्यादी स्त्री-पुरुषांनो! जो जो विद्वानांनी उपदेश केलेला आहे त्याचाच स्वीकार करा. कारण सत्पुरुषांच्या उपदेशाशिवाय संसारात माणसांची उन्नती होत नाही. जेथे उत्तम विद्वानांचे उपदेश होत नाहीत. तेथे सर्वजण अज्ञानरूपी अंधकाराने आवृत्त झालेले असतात व पशूंप्रमाणे वर्तन करून दुःखांचा संचय करतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, harbingers of life and joy, destroyers of anti-life forces, travelling by the fastest sophisticated chariot from the heights of heaven, down the clouds over the mountain slopes across the valleys, listen to this rumble of the cloud and mountain echo: Ashvins, darling friends, going to fight out want and suffering at your fastest, didn’t the first-born wisest of the sages exhort you to move this way? And that is the rumble of the cloud, that is the voice of thunder, that is the mountain echo. That is our prayer.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Ashvins (The President of the Assembly and Commander of the army) travelling over the hills with your quick-moving well-constructed charming vehicles like the aero plane, containing requisite articles, liberal and destroyers of all miseries, listen to this speech. Do the old or experienced wise men ever tell condemnatory words, regarding you ? (never They all praise you.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सुवृता) शोभन: सह वर्तमानेन = Containing good means or requisite articles. (अवर्तिम्) अवाच्यम् = Reproach or censuring words.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O King and other officers of State both men and women! You should accept only what is told by the absolutely truthful learned persons. Men can not make progress without the teachings given by good persons. Where absolutely truthful learned and wise persons do not teach others through their inspiring sermons, men are steeped in ignorance and suffer, behaving like beasts.

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