ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 118/ मन्त्र 5
आ वां॒ रथं॑ युव॒तिस्ति॑ष्ठ॒दत्र॑ जु॒ष्ट्वी न॑रा दुहि॒ता सूर्य॑स्य। परि॑ वा॒मश्वा॒ वपु॑षः पत॒ङ्गा वयो॑ वहन्त्वरु॒षा अ॒भीके॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वा॒म् । रथ॑म् । यु॒व॒तिः । ति॒ष्ठ॒त् । अत्र॑ । जु॒ष्ट्वी । न॒रा॒ । दु॒हि॒ता । सूर्य॑स्य । परि॑ । वा॒म् । अश्वाः॑ । वपु॑षः । प॒त॒ङ्गाः । वयः॑ । व॒ह॒न्तु॒ । अ॒रु॒षाः । अ॒भीके॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ वां रथं युवतिस्तिष्ठदत्र जुष्ट्वी नरा दुहिता सूर्यस्य। परि वामश्वा वपुषः पतङ्गा वयो वहन्त्वरुषा अभीके ॥
स्वर रहित पद पाठआ। वाम्। रथम्। युवतिः। तिष्ठत्। अत्र। जुष्ट्वी। नरा। दुहिता। सूर्यस्य। परि। वाम्। अश्वाः। वपुषः। पतङ्गाः। वयः। वहन्तु। अरुषाः। अभीके ॥ १.११८.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 118; मन्त्र » 5
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे नरा नेतारौ सभासेनाधीशौ वपुषो जुष्ट्वी युवतिर्दुहिता सूर्य्यस्योषाः पृथिवीमिव वां रथमातिष्ठत्। अत्राभीके पतङ्गा अरुषा वयोऽश्वा वां परिवहन्तु ॥ ५ ॥
पदार्थः
(आ) (वाम्) युवयोः (रथम्) (युवतिः) नवयौवना (तिष्ठत्) (अत्र) (जुष्ट्वी) प्रीता सेवमाना वा (नरा) (दुहिता) (सूर्यस्य) कान्तिः (परि) (वाम्) युवाम् (अश्वाः) (वपुषः) सुरूपस्य। वपुरिति रूपना०। निघं० ३। ७। (पतङ्गाः) (वयः) पक्षिण इव (वहन्तु) (अरुषाः) रक्तादिगुणविशिष्टा अग्न्यादयः (अभीके) संग्रामे। अभीक इति संग्रामना०। निघं० २। १७। ॥ ५ ॥
भावार्थः
अत्र लुप्तोपमालङ्कारौ। यथा सूर्य्यस्य किरणाः सर्वतो विहरन्ति यथा पतिव्रता साध्वी पतिं सुखं नयति यथा पक्षिण उपर्यधो गच्छन्ति तथा युद्धे श्रेष्ठानि यानान्युत्तमा वीराश्चाभीष्टं साध्नुवन्ति ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (नरा) सबके नायक सभासेनाधीशो ! (वपुषः) सुन्दर रूप की (जुष्ट्वी) प्रीति को पाए हुए वा सुन्दर रूप की सेवा करती सुन्दरी (युवतिः) नवयौवना (दुहिता) कन्या (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की किरण जो प्रातःसमय की वेला जैसे पृथिवी पर ठहरे वैसे (वाम्) तुम दोनों के (रथम्) रथ पर (आ, तिष्ठत्) आ बैठे (अत्र) इस (अभीके) संग्राम में (पतङ्गाः) गमन करते हुए (अरुषाः) लाल रङ्गवाले (वयः) पखेरूओं के समान (अश्वाः) शीघ्रगामी अग्नि आदि पदार्थ (वाम्) तुम दोनों को (परि, वहन्तु) सब ओर से पहुँचायें ॥ ५ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य की किरणें सब ओर से आती-जाती हैं वा जैसे पतिव्रता उत्तम स्त्री पति को सुख पहुँचाती है वा जैसे पखेरू ऊपर-नीचे जाते हैं, वैसे युद्ध में उत्तम यान और उत्तम वीर जन चाहे हुए सुख को सिद्ध करते हैं ॥ ५ ॥
विषय
प्रातः - जागरण [उषा का स्वागत]
पदार्थ
१. (अत्र) = इस जीवन में हे (नरा) = हमें उन्नति - पथ पर ले - चलनेवाले प्राणापानो ! (वां रथम्) = आपके इस रथ पर (सूर्यस्य दुहिता) = यह सूर्य की दुहिता ‘उषा’ जोकि (युवतिः) = सब अशुभों को दूर करने तथा शुभों को संयुक्त करनेवाली है , वह (जुष्ट्वी) = प्रीतिपूर्वक प्रभु का उपासन करनेवाली होकर (आतिष्ठत्) = स्थित हो । हम उषा के आगमन से पूर्व ही उठ खड़े हों । हमारा यह शरीर रथ उषा के स्वागत के लिए तैयार हो । ऐसी स्थिति में यह उषा हमारे जीवन से अशुभ को दूर करके शुभ को हमारे साथ संयुक्त करती है । २. हे प्राणापानो ! (वाम्) = आपके ये (अश्वाः) = इन्द्रियाश्व (वपुषः) = उत्तम रूपवाले होते हुए [वपुः रूप , मत्वर्थीय प्रत्यय का लोप है] (पतङ्गाः) = उत्पतन के साथ गतिवाले (वयः) = गमनशील (अरुषाः) = आरोचमान अथवा ‘अ - रुषाः’ क्रोध से रहित हों और (अभीके) = हमें ब्रह्मलोकरूप गृह के समीप (परिवहन्तु) = सर्वथा ले - जानेवाले हों । इन इन्द्रियाश्वों की क्रियाएँ हमें ब्रह्म के समीप प्राप्त करानेवाली हों । बह्मलोक ही तो हमारा घर है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रातः उषा के आगमन से पूर्व ही उठ खड़े हों , उषा के स्वागत के लिए तैयार हों । हमारे इन्द्रियाश्व हमें ब्रह्मलोकरूप घर के समीप प्राप्त करानेवाले हों ।
विषय
विद्वान् प्रमुख नायकों और स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( नरा ) नायक पुरुषो! (सूर्यस्य दुहिता) सूर्य की कन्या उषा के समान कान्तिमती और सूर्य के समान तेजस्वी नायक की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने हारी ( वां ) तुम दोनों ( जुष्ट्वी ) प्रेमयुक्त या ऐश्वर्यों का सेवन करती हुई ( युवतिः ) युवति स्त्री लिये ( वां ) तुम दोनों के बने ( रथम् ) रथ पर ( आ अतिष्ठत् ) प्रथम बैठे । ( वाम् ) तुम दोनों को ( वपुषः ) बड़े २ डील वाले (अरुषाः) किरणों के समान लाल रंग के बड़े तेजस्वी ( वयः ) गतिशील ( पतंगाः ) घोड़े ( वाम् ) तुम दोनों को (परिवहन्तु) ढो ले जावें । अथवा—( वपुषः जोष्टी युवतिः ) उत्तम रूप को चाहने वाली वरवर्णिनी युवति ही तुम स्त्री-पुरुषों में से प्रथम रथ पर चढ़े ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ११ भुरिक् पंक्तिः । २, ५, ७ त्रिष्टुप् । ३, ६, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. जशी सूर्याची किरणे चोहीकडून येतात- जातात व पतिव्रता उत्तम स्त्री पतीला सुख देते, जसे पक्षी खाली-वर उडतात तसे युद्धात उत्तम यान व उत्तम वीर अभीष्ट सुख देतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, leading lights of humanity, may the lovely maiden, loving daughter of the sun, ride your chariot with you, may the horses, fiery of body, radiating like sunbeams and flying like birds take you to the battlefield from anywhere and everywhere.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O leaders of men (The President of the Assembly and commander of the Army) A beautiful young lady who is like the daughter of the sun (dawn) ascends your vehicle. May the fire and other shining articles which are quick moving like the birds take you to the battle field.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अरुषा:) रक्तादिगुणविशिष्टाः = Ruddy fire and other articles. (अभीके) संग्रामे अभीक इति संग्रामनाम (निघ० २.१७ ) = In the battle field.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the rays of the sun go around in all places, as a chaste wife delights her husband and as the birds go above and below with ease, in the same manner, well-built vehicles take the heroes easily to their desired place in the battle field.
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