ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 136/ मन्त्र 4
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - भुरिगष्टिः
स्वरः - मध्यमः
अ॒यं मि॒त्राय॒ वरु॑णाय॒ शंत॑म॒: सोमो॑ भूत्वव॒पाने॒ष्वाभ॑गो दे॒वो दे॒वेष्वाभ॑गः। तं दे॒वासो॑ जुषेरत॒ विश्वे॑ अ॒द्य स॒जोष॑सः। तथा॑ राजाना करथो॒ यदीम॑ह॒ ऋता॑वाना॒ यदीम॑हे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय॑ । शम्ऽत॑मः । सोमः॑ । भू॒तु॒ । अ॒व॒ऽपाने॑षु । आऽभ॑गः । दे॒वः । दे॒वेषु॑ । आऽभ॑गः । तम् । दे॒वासः॑ । जु॒षे॒र॒त॒ । विश्वे॑ । अ॒द्य । स॒ऽजोष॑सः । तथा॑ । रा॒जा॒ना॒ । क॒र॒थः॒ । यत् । ईम॑हे । ऋत॑ऽवाना । यत् । ईम॑हे ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं मित्राय वरुणाय शंतम: सोमो भूत्ववपानेष्वाभगो देवो देवेष्वाभगः। तं देवासो जुषेरत विश्वे अद्य सजोषसः। तथा राजाना करथो यदीमह ऋतावाना यदीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। मित्राय। वरुणाय। शम्ऽतमः। सोमः। भूतु। अवऽपानेषु। आऽभगः। देवः। देवेषु। आऽभगः। तम्। देवासः। जुषेरत। विश्वे। अद्य। सऽजोषसः। तथा। राजाना। करथः। यत्। ईमहे। ऋतऽवाना। यत्। ईमहे ॥ १.१३६.४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 136; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरत्र मनुष्यैः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ।
अन्वयः
यथाऽयमवपानेषु मित्राय वरुणायाभगः शंतमः सोमो भूतु तथा यो देवो देवेष्वाभगो भवतु तमद्य सजोषसो विश्वे देवासो जुषेरत यथा यद्यं राजाना करथस्तथा तं वयमीमहे यथा ऋतावाना यद्यं करथस्तथा तं वयमीमहे ॥ ४ ॥
पदार्थः
(अयम्) (मित्राय) सर्वसुहृदे (वरुणाय) सर्वोत्कृष्टाय (शंतमः) अतिशयेन सुखकारी (सोमः) सुखैश्वर्यकारको न्यायः (भूतु) भवतु। अत्र शपो लुक्, भसुवोस्तिङीति गुणप्रतिषेधः। (अवपानेषु) अत्यन्तेषु रक्षणेषु (आभगः) समस्तैश्वर्यः (देवः) सुखप्रदाता (देवेषु) दिव्येषु विद्वत्सु गुणेषु वा (आभगः) समस्तसौभाग्यः (तम्) (देवासः) विद्वांसः (जुषेरत) सेवेरन्प्रीणन्तु वा। अत्र बहुलं छन्दसीति रुडागमः। (विश्वे) सर्वे (अद्य) (सजोषसः) समानं धर्मं सेवमानाः (तथा) (राजाना) प्रकाशमानौ सभासेनेशौ (करथः) कुर्य्याताम् (यत्) यम् (ईमहे) याचामहे (ऋतावाना) ऋतस्य सत्यस्य सम्बन्धिनौ। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (यत्) यम् (ईमहे) ॥ ४ ॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। इह संसारे यथाऽऽप्ता धर्म्येण व्यवहारेणैश्वर्यमुन्नीय सर्वेषामुपकारके कर्मणि व्ययन्ति यथा सत्यं जिज्ञासवो धार्मिकान् विदुषो याचते तथा सर्वे मनुष्याः स्वमैश्वर्यं सत्कर्मणि व्ययेयुः। विद्वद्भ्यो विद्याश्च याचेरन् ॥ ४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर इस संसार में मनुष्यों को कैसे वर्त्तना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
जैसे (अयम्) यह (अवपानेषु) अत्यन्त रक्षा आदि व्यवहारों में (मित्राय) सबके मित्र और (वरुणाय) सबसे उत्तम के लिये (आभगः) समस्त ऐश्वर्य (शन्तमः) अतीव सुख (सोमः) और सुखयुक्त ऐश्वर्य्य करनेवाला न्याय (भूतु) हो वैसे जो (देवः) सुख अच्छे प्रकार देनेवाला (देवेषु) दिव्य विद्वानों और दिव्य गुणों में (आभगः) समस्त सौभाग्य हो (तम्) उसको (अद्य) आज (सजोषसः) समान धर्म का सेवन करनेवाले (विश्वे) समस्त (देवासः) विद्वान् जन (जुषेरत) सेवन करें वा उससे प्रीति करें और जैसे (यत्) जिस व्यवहार को (राजाना) प्रकाशमान सभा सेनापति (करथः) करें (तथा) वैसे उस व्यवहार को हम लोग (ईमहे) माँगते और जैसे (ऋतावाना) सत्य का सम्बन्ध करनेवाले (यत्) जिस काम को करें, वैसे उसको हम लोग भी (ईमहे) याचें माँगें ॥ ४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। इस संसार में जैसे शास्त्रवेत्ता विद्वान् धर्म के अनुकूल व्यवहार से ऐश्वर्य्य की उन्नति कर सबके उपकार करनेहारे काम में खर्च करते वा जैसे सत्य व्यवहार को जानने की इच्छा करनेवाले धार्मिक विद्वानों को याचते अर्थात् उनसे अपने प्रिय पदार्थ को माँगते, वैसे सब मनुष्य अपने ऐश्वर्य को अच्छे काम में खर्च करें और विद्वान् महाशयों से विद्याओं की याचना करें ॥ ४ ॥
विषय
शन्तम सोम
पदार्थ
१. (अयं सोमः) = यह सोम वीर्य (मित्राय वरुणाय) = मित्र और वरुण के लिए-प्राणापान के लिए (शन्तमः भूतु) = अत्यन्त शान्ति देनेवाला हो। सोम-रक्षण से प्राणापान की शक्ति का वर्धन होता है और प्राणसाधना सोमरक्षण में सहायक है। यह (देवः) = दिव्य गुणों को जन्म देनेवाला सोम अथवा सब रोगों को जीतने की कामना करनेवाला सोम [दिव् विजिगीषा] अवपानेषु शरीर में ही पान [सुरक्षित] होनेपर (आभगः) = सब कोशों के ऐश्वर्य का कारण होता है। सोम (देवेषु) = सब इन्द्रियों में (आभगः) = पूर्णरूप से ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाला होता है-सब इन्द्रियों को मनाना हैं। २ नम उस सोम को (देवासः) = हे देवो जघेरत-प्रीतिपर्वक सेवन (जुषेरत) = प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले बनो। (विश्वे) = सब देवो! (अद्य) = आज (सजोषसः) = परस्पर प्रीतिवाले होते हुए इस सोम का पान करो। देववृत्ति के लोग वस्तुतः इस सोमपान के कारण ही देववृत्ति के बनते हैं। ३. हे (राजाना) = [राजू दीप्तौ] दीप्त होनेवाले मित्र और वरुण, अर्थात् प्राणापानो! तथा करथ ऐसा करो (यत् ईमहे) = जैसा कि हम चाहते हैं। हे (ऋतावाना) = ऋतवाले, सब कार्यों में ऋत को ले- आनेवाले अथवा अनृत को नष्ट करके ऋत का वर्धन करनेवाले प्राणापानो! ऐसा करो (यत् ईमहे) = जैसी कि हम याचना करते हैं। हम यही चाहते हैं कि यह सोम शरीर में सुरक्षित होकर सब इन्द्रियों को शक्तिरूप ऐश्वर्य प्राप्त करनेवाला हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से प्राणापान की शक्ति बढ़ती है, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने ऐश्वर्य को प्राप्त होती हैं और हमारी वृत्ति दैवी बनती हैं।
विषय
राजाप्रजा का प्रेममय व्यवहार ।
भावार्थ
( अयं ) यह ( अवपानेषु ) प्रजाओं के रक्षा कार्यों में ( आभगः ) सब प्रकार से सेवा करने और सुख देने वाला और (देवेषु) दानशील विद्वान् पुरुषों में ( आभगः ) सब ऐश्वर्यो से युक्त होकर ( देवः ) दानशील, विजयेच्छु ( सोमः ) सबका प्रेरक राजा ( मित्राय ) स्नेहवान् मित्रों और ( वरुणाय ) शत्रुवारक और सर्वश्रेष्ठ पुरुषों के लिये ( शं-तमः ) अत्यन्त शान्तिकारक ( भूतु ) हो । ( देवासः ) विद्वान् और वीर पुरुष ( विश्वे ) सब ( सजोषसः ) समान प्रीति से युक्त होकर ( अद्य ) आज, सदा ( जुषेरत ) उसको प्रेम करें। अथवा उक्त गुणों वाला ( सोमः ) सबको सन्मार्ग में प्रेरणा करने वाला न्याय सब को सुखकारक हो और विद्वान् उसका सेवन करें। और हम ( यत् ईमहे ) जिस न्याय और श्रेष्ठ कार्य को ( ईमहे ) चाहते हों ( राजाना ) तेजस्वी प्रमुख पुरुष ( तथा करथः ) वैसा करें। और ( यत् ) जो हम चाहते हों वह वे दोनों ( ऋतावाना ) सत्य न्यायशील प्रमुख पुरुष करें । अथवा ( यत् तौ करथः तथा ईमहे ) वे जो कुछ करें हम वह चाहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-७ परुच्छेप ऋषिः ॥ १-५ मित्रावरुणौ । ६—७ मन्त्रोक्ता देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ६ स्वराडत्यष्टिः । २ निचृदष्टिः । ४ भुरिगष्टिः । ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. या जगात जसे शास्त्रवेत्ते विद्वान धर्मानुकूल व्यवहाराने ऐश्वर्याची वाढ करतात व सर्वांवर उपकार करणाऱ्या कामात खर्च करतात जसे सत्य व्यवहाराची जिज्ञासा असणाऱ्या धार्मिक विद्वानांची याचना करतात. अर्थात आपल्याला प्रिय असलेले पदार्थ मागतात. तसे सर्व माणसांनी आपले ऐश्वर्य चांगल्या कामात खर्च करावे व विद्वानांकडून विद्यांची याचना करावी. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May this Soma, holy peace and brilliant justice of the social order, be most joyous and blissful for Mitra and Varuna, friendly and the best intelligent powers be harbinger of honour and good fortune among saints and sages and in the daily business and yajnic programmes of national activity. May all the noble powers today, observing the common universal Dharma, serve the same peace and justice. May the ruling powers, observing the universal law, accept and do what we ask for, what we, observing the universal law, suggest they ought to do.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men behave is told in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
May this justice which leads to happiness and prosperity be the source of joy to the Mitra (friend of all) and Varuna ( the excellent or most acceptable ) in all protective actions. May the learned person who is giver of happiness among the enlightened or divine virtues be endowed with all prosperity. May all enlightened persons observing the same Dharma equally, serve and please him. May the President of the Assembly and Commander-in-chief of the army who shine on account of their virtues do as we desire, may they who are ever truthful, do as we request.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( सोम: ) सुखैश्वर्यकारको न्याय: = Justice leading to happiness and prosperity. ( सजोषसः ) समानं धर्मं सेवमानाः = Observing the same Dharma equally. ( राजाना ) प्रकाशमानौ सभासेनेशौ =The President of the Assembly and the commander of of the army shining on account their good virtues.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All men should spend all their wealth in good actions, as absolutely truthful persons do by augmenting their wealth by righteous dealing and by spending it for benevolent works. As seekers after truth request righteous learned persons to enlighten them, so all should request highly learned persons to give them knowledge of various sciences.
Translator's Notes
सोमः is from षू प्रसवैश्वर्ययो: Hence the meaning of सोम as given above by Rishi Dayananda Saraswati. सजोषस: is from सह जुषी-प्रोतिसेवनयोः (राजाना) राजृ-दीप्तौ
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