ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 136/ मन्त्र 5
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
यो मि॒त्राय॒ वरु॑णा॒यावि॑ध॒ज्जनो॑ऽन॒र्वाणं॒ तं परि॑ पातो॒ अंह॑सो दा॒श्वांसं॒ मर्त॒मंह॑सः। तम॑र्य॒माभि र॑क्षत्यृजू॒यन्त॒मनु॑ व्र॒तम्। उ॒क्थैर्य ए॑नोः परि॒भूष॑ति व्र॒तं स्तोमै॑रा॒भूष॑ति व्र॒तम् ॥
स्वर सहित पद पाठयः । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय । अवि॑धत् । जनः॑ । अ॒न॒र्वाण॑म् । तम् । परि॑ । पा॒तः॒ । अंह॑सः । दा॒श्वांस॑म् । मर्त॑म् । अंह॑सः । तम् । अ॒र्य॒मा । अ॒भि । र॒क्ष॒ति॒ । ऋ॒जु॒ऽयन्त॑म् । अनु॑ । व्र॒तम् । उ॒क्थैः । यः । ए॒नोः॒ । प॒रि॒ऽभूष॑ति । व्र॒तम् । स्तोमैः॑ । आ॒ऽभूष॑ति । व्र॒तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो मित्राय वरुणायाविधज्जनोऽनर्वाणं तं परि पातो अंहसो दाश्वांसं मर्तमंहसः। तमर्यमाभि रक्षत्यृजूयन्तमनु व्रतम्। उक्थैर्य एनोः परिभूषति व्रतं स्तोमैराभूषति व्रतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयः। मित्राय। वरुणाय। अविधत्। जनः। अनर्वाणम्। तम्। परि। पातः। अंहसः। दाश्वांसम्। मर्तम्। अंहसः। तम्। अर्यमा। अभि। रक्षति। ऋजुऽयन्तम्। अनु। व्रतम्। उक्थैः। यः। एनोः। परिऽभूषति। व्रतम्। स्तोमैः। आऽभूषति। व्रतम् ॥ १.१३६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 136; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः कस्मै किं कुर्युरित्याह ।
अन्वयः
हे सभासेनेशौ यो जनो मित्राय वरुणाय युवाभ्यामविधत् तमनर्वाणं मर्त्तमंहसो युवां परिपातस्तं दाश्वांसं मर्त्तमंहसः परि पातः योऽर्यमा व्रतमृजूयन्तमभिरक्षति तं युवामनुरक्षथो य एनोरुक्थैर्व्रतं परिभूषति स्तोमैर्व्रतमाभूषति तं सर्वे विद्वांसः सततमारक्षन्तु ॥ ५ ॥
पदार्थः
(यः) (मित्राय) सर्वोपकारकाय (वरुणाय) सर्वोत्तमस्वभावाय (अविधत्) परिचरेत् (जनः) यशसा प्रादुर्भूतः (अनर्वाणम्) द्वेषादिदोषरहितम् (तम्) (परि) सर्वतः (पातः) रक्षतः (अंहसः) दुष्टाचारात् (दाश्वांसम्) विद्यादातारम् (मर्त्तम्) मनुष्यम् (अंहसः) पापात् (तम्) (अर्यमा) न्यायकारी (अभि) (रक्षति) (ऋजूयन्तम्) आत्मनः ऋजुभावमिच्छन्तम् (अनु) (व्रतम्) सत्याचारशीलम् (उक्थैः) वक्तुमर्हैरुपदेशैः (यः) (एनोः) एनयोः (परिभूषति) सर्वतोऽलङ्करोति (व्रतम्) सुशीलम् (स्तोमैः) स्तोतुमर्हैः (आभूषति) समन्तादाप्नोति (व्रतम्) सुशीलताम् ॥ ५ ॥
भावार्थः
विद्वांसो ये धर्माऽधर्मौ विविदिषेयुर्धर्मस्य ग्रहणमधर्मस्य त्यागं च चिकीर्षेयुस्तानध्याप्योपदिश्य विद्याधर्मादिशुभगुणकर्मस्वभावैः सर्वत आभूषयेयुः ॥ ५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् किसके लिये क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे सभासेनाधीशो ! (यः) जो (जनः) यश से प्रसिद्ध हुआ (मित्राय) सर्वोपकार करने (वरुणाय) और सबसे उत्तम स्वभाववाले मनुष्य के लिये तुम दोनों से (अविधत्) सेवा करे (तम्) उस (अनर्वाणम्) वैर आदि दोषों से रहित (मर्त्तम्) मनुष्य को (अंहसः) दुष्ट आचरण से तुम दोनों (परिपातः) सब ओर से बचाओ तथा (तम्) उस (दाश्वांसम्) विद्या देनेवाले मनुष्य को (अंहसः) पाप से बचाओ (यः) जो (अर्यमा) न्याय करनेवाला सज्जन (व्रतम्) सत्य आचरण करने और (ऋजूयन्तम्) अपने को कोमलपन चाहते हुए मनुष्य की (अभिरक्षति) सब ओर से रक्षा करता उसकी तुम दोनों (अनु) पीछे रक्षा करो जो (एनोः) इन दोनों के (उक्थैः) कहने योग्य उपदेशों से (व्रतम्) सुन्दर शील को (परिभूषति) सब ओर से सुशोभित करता वा (स्तौमैः) प्रशंसा करने योग्य व्यवहारों से (व्रतम्) सुन्दर शील को (आभूषति) अच्छे प्रकार शोभित करता, उसको सब विद्वान् निरन्तर पालें ॥ ५ ॥
भावार्थ
विद्वान् जन जो लोग धर्म और अधर्म को जानना चाहें तथा धर्म का ग्रहण और अधर्म का त्याग करना चाहें, उनको पढ़ा और उपदेश कर विद्या और धर्म आदि शुभ गुण, कर्म और स्वभाव से सब ओर से सुशोभित करें ॥ ५ ॥
विषय
मित्र और वरुण की उपासना
पदार्थ
१. (यः जनः) = जो मनुष्य (मित्राय वरुणाय) = प्राणापान के लिए (अविधत्) = पूजा करता है, अर्थात् प्राणायाम द्वारा प्राणापान को ठीक रखने का प्रयत्न करता है (तम् अनर्वाणम्) = उस द्वेषशून्य पुरुष को [अद्वेष्य- अजातशत्रु को] (अंहसः) = पाप से (परिपातः) = बचाते हो। उस (दाश्वांसम् मर्तम्) = आपके प्रति अपने को दे डालनेवाले पुरुष को (अंहसः) = पाप से बचाते हो । प्राणसाधना का यह परिणाम है कि अशुभ वृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। २. (तम्) = उस (ऋजूयन्तम्) = सरल मार्ग से गति करनेवाले पुरुष को (अनुव्रतम्) = उस अनुकूल व्रतोंवाले पुरुष को (अर्यमा) = काम-क्रोधादि को संयत रखने की वृत्ति (अभिरक्षति) = शरीर व मन पर आक्रमण करनेवाले रोगों व रागों से बचाती है। उसको बचाती है (यः) = जो (उक्थैः) = स्तोत्रों के द्वारा (एनो:) = इन प्राणापान के (व्रतम्) = व्रत को (परिभूषति) = [परिगृह्णाति -सा०] धारण करता है। (स्तोमैः) = प्रभुस्तवनों के साथ (व्रतम् आभूषति) = प्राणसाधना के व्रत को अपने जीवन का भूषण बनाता है। स्पष्ट है कि हम प्राणायाम करते हुए प्रभु के स्तोत्रों का ध्यान करें तो शरीर व मन के मलों से रहित होकर हमारा जीवन अत्यन्त पवित्र बनेगा।
भावार्थ
भावार्थ - अपने को पापों से बचाने के लिए प्राणसाधना अत्यन्त उपयोगी है।
विषय
परस्पर पाप से रक्षा करने का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यह ) जो ( जनः ) पुरुष (मित्राय) स्नेहवान् मित्र और ( वरुणाय ) दुःखों के वारक, श्रेष्ठ पुरुष के हित के लिये ( अविधत् ) उनकी सेवा करता और नाना कर्मों का अनुष्ठान करे वे दोनों ( अनर्वाणं ) द्वेषादि दोषों से रहित, शत्रु से हीन, अजातशत्रु ( दाश्वांसं ) दानशील ( तं मर्त्तं ) उस पुरुष की ( अंहसः ) पाप से (परिपातः) रक्षा करें । और ( व्रतम् अनु ) सत्याचार के अनुसार ( ऋजूयन्तम् ) अति विनयशील होकर रहने वाले ( तं ) उसको ( अर्यमा ) न्यायशील पुरुष भी ( अंहसः ) पापाचार और वधादि क्लेश से ( अभिरक्षतु ) सब प्रकार से बचावे । ( यः ) जो ( एनोः ) उक्त दोनों मित्र और वरुण, स्नेही और श्रेष्ठ पुरुषों के ( व्रतं ) कर्त्तव्य को ( उक्थैः ) स्तुत्य वचनों द्वारा ( परिभूषति ) सर्वत्र वर्णन करता है और ( व्रतं ) अनुष्ठान करने योग्य धर्माचरण को ( स्तोमैः ) स्तुति योग्य उपायों से ( परिभूषति ) प्रकार आचरण करता है उसको भी न्यायशील पुरुष पाप मार्ग और वधादि दुःखों से सुरक्षित करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-७ परुच्छेप ऋषिः ॥ १-५ मित्रावरुणौ । ६—७ मन्त्रोक्ता देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ६ स्वराडत्यष्टिः । २ निचृदष्टिः । ४ भुरिगष्टिः । ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक धर्म व अधर्म जाणू इच्छितात आणि धर्माचे ग्रहण व अधर्माचा त्याग करू इच्छितात त्यांना विद्वान लोकांनी अध्यापन व उपदेश करून विद्या व धर्म इत्यादी शुभ गुण, कर्म, स्वभावाने सुशोभित करावे ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The man who serves Mitra, lord protector and friend of all, and Varuna, lord supreme of love and justice, is generous, free from jealousy and irresistible. The lords save him from sin and protect him against evil and wickedness. Aryama, lord of universal law, gives him all round protection and promotion who is simple and honest in character and behaviour and submits to the divine law and discipline in word and deed, who honours the discipline of Mitra and Varuna with sincere words of thanks and praise and, in obedience to their law, abides by them in creative acts of yajna in regular seasonal performances.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should learned men do is told further in the fifth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly and Commander of the Army You protect ( preserve ) the person who serves you both who are friendly to all and possessing the most acceptable temperament, you protect the person from sin from all sides who is free from malice and other evils and who is giver of knowledge to others You also protect the person who is just and preserves the man of upright or the duty of all straight forward and truthful nature. It enlightened persons to protect a man who serves them (Mitra and Varuna as explained above) with good sermons and who adorns good temper and conduct with admirable praises and acts.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( अनर्वाणम् ) द्वेषादिदोषरहितम् = Free from malice and other evils. ( दाश्वासम् ) विद्यादातारम् = Giver of knowledge.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Learned persons should teach and instruct the persons who desire to know Dharma and Adharma ( righteousness to and unrighteousness) and to accept Dharma and renounce adharma. They should adorn them from all sides with Vidya ( Wisdom) Dharma and other noble virtues and actions.
Translator's Notes
अर्वा Here is used in bad sense as given in the Unadi Kosh 5.54 अवद्यावमाधमार्वरेफाः कुत्सिते ( उणा० ५.५४ ) It is also from अर्व-हिसायाम् भ्वा० Therefore Rishi Dayananda Sarasvati has interpreted अनर्वाणम् as अद्वे-षिणम् and has quoted the Brahamanic passages to sub stantiate his interpretation. भ्रातृव्यो वा अर्वेतिश्रुते
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