ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 136/ मन्त्र 6
ऋषिः - परुच्छेपो दैवोदासिः
देवता - मन्त्रोक्ताः
छन्दः - विराडत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
नमो॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते रोद॑सीभ्यां मि॒त्राय॑ वोचं॒ वरु॑णाय मी॒ळ्हुषे॑ सुमृळी॒काय॑ मी॒ळ्हुषे॑। इन्द्र॑म॒ग्निमुप॑ स्तुहि द्यु॒क्षम॑र्य॒मणं॒ भग॑म्। ज्योग्जीव॑न्तः प्र॒जया॑ सचेमहि॒ सोम॑स्यो॒ती स॑चेमहि ॥
स्वर सहित पद पाठनमः॑ । दि॒वे । बृ॒ह॒ते । रोद॑सीभ्याम् । मि॒त्राय॑ । वोच॑म् । वरु॑णाय । मी॒ळ्हुषे॑ । सु॒ऽमृ॒ळी॒काय॑ । मी॒ळ्हुषे॑ । इन्द्र॑म् । अ॒ग्निम् । उप॑ । स्तु॒हि॒ । द्यु॒क्षम् । अ॒र्य॒मण॑म् । भग॑म् । ज्योक् । जीव॑न्तः । प्र॒ऽजया॑ । स॒चे॒म॒हि॒ । सोम॑स्य । ऊ॒ती । स॒चे॒म॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमो दिवे बृहते रोदसीभ्यां मित्राय वोचं वरुणाय मीळ्हुषे सुमृळीकाय मीळ्हुषे। इन्द्रमग्निमुप स्तुहि द्युक्षमर्यमणं भगम्। ज्योग्जीवन्तः प्रजया सचेमहि सोमस्योती सचेमहि ॥
स्वर रहित पद पाठनमः। दिवे। बृहते। रोदसीभ्याम्। मित्राय। वोचम्। वरुणाय। मीळ्हुषे। सुऽमृळीकाय। मीळ्हुषे। इन्द्रम्। अग्निम्। उप। स्तुहि। द्युक्षम्। अर्यमणम्। भगम्। ज्योक्। जीवन्तः। प्रऽजया। सचेमहि। सोमस्य। ऊती। सचेमहि ॥ १.१३६.६
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 136; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 6
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अष्टक » 2; अध्याय » 1; वर्ग » 26; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः किंवत्किं कुर्युरित्याह ।
अन्वयः
हे विद्वन्यथाऽहं बृहते दिवे रोदसीभ्यां मित्राय वरुणाय मीढुषे सुमृळीकाय मीढुषे नमो वोचं तथा त्वं वदेथाः। यथाऽहमिन्द्रमग्निं द्युक्षमर्य्यमणं भगं वोचं तथा त्वमुपस्तुहि। यथा जीवन्तो वयं प्रजया सह ज्योक् सचेमहि सोमस्योती सह सचेमहि तथा त्वमपि सचस्व ॥ ६ ॥
पदार्थः
(नमः) सत्करणम् (दिवे) द्योतकाय (बृहते) महते (रोदसीभ्याम्) द्यावापृथिवीभ्याम् (मित्राय) सर्वसुहृदे (वोचम्) उच्याम्। अत्राडभावः। (वरुणाय) वराय (मीढुषे) शुभगुणसेचकाय (सुमृळीकाय) सुखकारकाय (मीढुषे) सुखप्रदाय (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (अग्निम्) पावकवद्वर्त्तमानम् (उप) (स्तुहि) प्रशंस (द्युक्षम्) द्योतमानम् (अर्यमणम्) न्यायाधीशम् (भगम्) धर्मं सेवमानम् (ज्योक्) निरन्तरम् (जीवन्तः) प्राणान्धरन्तः (प्रजया) सुसन्तानाद्यया सह (सचेमहि) समवयेम (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (ऊती) ऊत्या रक्षणाद्यया क्रियया साकम् (सचेमहि) व्याप्नुयाम ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्विदुषामनुकरणं कृत्वा पदार्थविद्यायै प्रवर्त्य प्रजैश्वर्यं प्राप्य सततं मोदितव्यम् ॥ ६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को किसके समान क्या करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे विद्वान् ! जैसे मैं (बृहते) बहुत (दिवे) प्रकाश करनेवाले के लिये वा (रोदसीभ्याम्) प्रकाश और पृथिवी से (मित्राय) सबके मित्र (वरुणाय) श्रेष्ठ (मीढुषे) शुभ गुणों से सींचने (सुमृळीकाय) सुख करने और (मीढुषे) अच्छे प्रकार सुख देनेवाले जन के लिये (नमः) सत्कार वचन (वोचम्) कहूँ वैसे आप कहो, वा जैसे मैं (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवाले (अग्निम्) अग्नि के समान वर्त्तमान (द्युक्षम्) प्रकाशयुक्त (अर्य्यमणम्) न्यायाधीश और (भगम्) धर्म सेवनेवाले को कहूँ वैसे आप (उप, स्तुहि) उसके समीप प्रशंसा करो, वा जैसे (जीवन्तः) प्राण धारण किये जीवते हुए हम लोग (प्रजया) अच्छे सन्तान आदि सहित प्रजा के साथ (ज्योक्) निरन्तर (सचेमहि) सम्बद्ध हों और (सोमस्य) ऐश्वर्य की (ऊती) रक्षा आदि क्रिया के साथ (सचेमहि) सम्बद्ध हों, वैसे आप भी सम्बद्ध होओ ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में अनेक वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को विद्वानों के समान चाल-चलन कर पदार्थविद्या के लिये प्रवृत्त हो तथा प्रजा और ऐश्वर्य को पाकर निरन्तर आनन्दयुक्त होना चाहिये ॥ ६ ॥
विषय
ज्ञान, जितेन्द्रियता व ऐश्वर्य
पदार्थ
१. उस (बृहते दिवे) = महान् प्रकाशस्वरूप परमात्मा के लिए (नमः) = मैं नमस्ते करता हूँ, उसके लिए नतमस्तक होकर उस जैसा ही होने का प्रयत्न करता हूँ। (रोदसीभ्याम्) = द्यावापृथिवी के लिए नमस्ते करता हूँ । द्युलोक की भाँति मस्तिष्क को ज्ञान से दीप्त करने के लिए यत्नशील होता हूँ और शरीर को पृथिवी के समान दृढ़ बनाता हूँ। (मित्राय) = स्नेह की देवता का (वोचम्) = स्तवन करता हूँ और (वरुणाय) = निर्देषता की देवता के लिए आराधना करता हूँ। ये स्नेह और निर्द्वेषता (मीळ्हुषे) = मेरे जीवन में सुखों का सेचन करनेवाली हैं। (सुमृळीकाय) = मेरे जीवन को उत्तम सुख प्राप्त करानेवाली हैं, (मीळ्हुषे) = और सचमुच सुखी करनेवाली हैं। २. अपने को ही प्रेरणा देते हुए यह आराधक कहता है कि (इन्द्रम् अग्निम्) = इन्द्र और अग्नि का (उपस्तुहि) = स्तवन कर । ये इन्द्र और अग्नि क्रमशः शक्ति व प्रकाश की देवता है। इनके आराधना से तू शक्तिसम्पन्न व प्रकाशमय जीवनवाला बनने का प्रयत्न कर। (द्युक्षम्) = दीप्तिमान् (अर्यमणम्) = अर्यमा का स्तवन कर। 'अर्यमा' शत्रुओं को वश में करने की देवता है। काम-क्रोधादि को वश में करनेवाला ही दीप्तिमान् बनता है, (भगम्) = तू सेवनीय धन का स्तवन कर सुपथ से कमाया गया धन ही सेवनीय धन है। ३. हमारी यही कामना हो कि (ज्योक् जीवन्तः) = दीर्घकाल तक जीवन को धारण करते हुए (प्रजया) = उत्तम सन्तान से (सचेमहि) = हम संगत हों। हमारा जीवन दीर्घ हो, हमारे सन्तान उत्तम हों। (सोमस्य) = ऊती सोमरक्षण के द्वारा हम दीर्घजीवन व उत्तम सन्तान से सचेमहि संगत हों ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्मरण करते हुए हम प्रकाश व शक्ति का सम्पादन करें। ज्ञान, जितेन्द्रियता व ऐश्वर्यौवाले होकर दीर्घजीवन व उत्तम सन्तान को प्राप्त करें।
विषय
श्रेष्ठ जनों का आदर सत्कार ।
भावार्थ
मैं ( वृहते ) बड़े भारी ( दिवे ) सूर्य के समान तेजस्वी, व्यवहार कुशल, रक्षक विजिगीषु, और सर्व प्रिय, ( रोदसीभ्याम् ) आकाश और पृथ्वी के समान पालक माता पिता, गुरु और आचार्य, ( मित्राय ) स्नेहवान् मित्र और ( वरुणाय ) वरण करने योग्य श्रेष्ठ पुरुष, और ( मीढुषे ) सुखों के वर्षण करने वाले ( मीढुषे ) मेघ के समान ( सुमृडीकाय ) सबको उत्तम सुख देने वाले उपकारी जनों का ( नमः ) आदर सत्कार के वचन ( वोचं ) कहूं ! हे मनुष्य ! तू ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान्, ( अग्निम् ) ज्ञानवान्, अग्रणी, तेजस्वी, ( द्युक्षम् ) दीप्ति युक्त, ( अर्यमणं ) सूर्य के समान शत्रुओं के वशकारी, ( भगं ) ऐश्वर्यवान् सेवनीय पुरुष और परम पुरुष की ( उप स्तुहि ) स्तुति कर हम ( ज्योक् जीवन्तः ) चिरकालतक दीर्घजीवन भोगते हुए ( प्रजया ) उत्तम सन्तान सहित ( सचेमहि ) रहें । और ( सोमस्य ) ऐश्वर्य और उत्तम प्रेरक गुरु आदि विद्वान् अध्यक्ष के ( ऊती ) रक्षा में ( सचेमहि ) सदा विद्यमान रहें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-७ परुच्छेप ऋषिः ॥ १-५ मित्रावरुणौ । ६—७ मन्त्रोक्ता देवताः॥ छन्दः—१, ३, ५, ६ स्वराडत्यष्टिः । २ निचृदष्टिः । ४ भुरिगष्टिः । ७ त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात अनेक वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी विद्वानांप्रमाणे वर्तणूक करून पदार्थविद्येत प्रवृत्त होऊन प्रजा व ऐश्वर्य प्राप्त करून निरन्तर आनंदयुक्त असावे ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
We offer words of praise and homage in honour of the great heaven of light, the earth and the skies, Mitra, lord of universal friendship, Varuna, lord supreme of love and choice, generous, blissful and virile. O man, sing in praise of Indra, lord of power, Agni, lord of light and leadership, the lord of heavenly light, Aryama, lord of the stars, and Bhaga, lord of wealth and honour. O Lord, living long, we pray, may we be blest with good family and friends, may we enjoy the protection of Soma, lord of peace, light and joy of the world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Then what should men do and like what is told in the sixth Mantra
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As I proclaim veneration for a great person shining on account of his virtues, always engaged in doing noble deeds for the benefit of the heaven and earth, for the person who is friendly to all, who is noble, benevolent, conferrer of happiness, showerer of peace. so you should also do. As I praise a man who is the possessor of great wealth of wisdom, who is full of splendor like the fire, who is just observer of the rules of righteousness, so you should also do. May we enjoy long life, being blessed with good progeny and be ever happy with the protection of God and well earned wealth ( of all kinds ).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सुमृडीकाय) सुखकारकाय = For the conferer of happiness. (भगम् ) धर्म सेवमानम् = Observer of the rules of righteousness. (भग-सेवायाम् ) Tr. ( धुक्षम् ) द्योतमानम् = Bright or shining on account of his virtues
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should always enjoy bliss by imitating the learned persons, by acquiring the scientific knowledge and becoming prosperous thereby.
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